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________________ ११६ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ किं च, अर्थप्रकाशतालक्षणोऽर्थधर्मोऽन्यथानुपपन्नत्वेनाऽनिश्चितः तं कल्पयति ? पाहोस्विद् निश्चितः ? इति । तत्र यद्याद्यः कल्पः, स न युक्तः, अतिप्रसङ्गात् । तथाहि-यद्यनिश्चितोऽपि तथात्वेन स तं परिकल्पयति तदा यथा तं परिकल्पयति तथा येन विनाऽपि स उपपद्यते तमपि किं न कल्पयति विशेषाभावात् ? अथाऽनिश्चितोऽपि तेन विनाऽनुपपद्यमानत्वेन निश्चितः स तं परिकल्पयति तहि लिंगस्यापि नियतत्वेनाऽनिश्चितस्यापि स्वसाध्यगमकत्वं स्यात् , तथा चार्थापत्तिरेव परोक्षार्थनिश्चायिका नानुमानमिति पटप्रमाणवादाभ्युपगमो विशीर्येत। अथान्यथानुपपद्यमानत्वेन निश्चितः स धर्मस्तं परिकल्पयति तदा वक्तव्यम्-क्व तस्यान्यथानुपपन्नत्वनिश्चयः ? यदि दृष्टान्तमणि तदा लिंगस्यापि तत्र नियतत्वनिश्चयोऽस्तीत्यनुमानमेवार्थापत्तिः स्यात् । एवं चार्थापत्तिरनुमानेऽन्तर्भूतेति पुनरपि प्रमाणषटकाभ्युपगमो विशीर्येत । व्यापारवादी:- अर्थप्रकाशता यह अर्थ को अनुभूयमानता (यानी अनुभवविषयतारूप) है । उत्तरपक्षी:- यह गलत है, क्योंकि अर्थप्रकाशता का स्वरूप हमने पूछा उसके उत्तर में आपने केवल पर्यायवाची शब्द ही दिया, स्वरूप का कुछ भी स्पष्टीकरण नहीं किया । इसलिये वह तो अप्रतिपन्न ही रहा। तो उसकी प्रतिपत्ति के लिये फिर से आपको वही प्रश्न करना होगा कि अर्थप्रकाशता का क्या स्वरूप है ? दूसरी बात यह है कि प्रकाशता और अनुभूयमानता का अर्थ होगा क्रमशः प्रकाश का कर्म तथा अनुभव का कर्म । इसमें प्रकाश और अनुभव तो ज्ञानात्मक ही है । जब तक वे दोनों अज्ञात रहेंगे तब तक उसकी कर्मता तो बेशक अज्ञात ही रहेगी। तात्पर्य, अर्थप्रकाशता और अनुभूयमानता ही स्वरूप से अज्ञात रहेगी तो उसकी अन्यथा अनुपपनि से ज्ञातव्यापार की कल्पना की तो बात ही कहाँ ? [ अर्थप्रकाशता धर्म निश्चित रहेगा या अनिश्चित ? ] व्यापारवादी को अन्य भी दो विकल्पों का सामना करना होगा- (१) वह अर्थप्रकातास्वरूप अर्थधर्म व्यापार के विना अनुपपद्यमान है इस प्रकार निश्चित न होने पर भी व्यापार की कल्पना करायेगा ? या (२) निश्चित होने पर ही ? (१) इसमें यदि प्रथम कल्प माना जाय तो वह अयुक्त है क्योंकि इसमें यह अतिप्रसंग होगा- अगर व्यापार के विना अनुपपद्यमान है इस प्रकार निश्चित न होने पर भी अर्थधर्म व्यापार की कल्पना करायेगा तो जैसे उसकी कल्पना कराता है वैसे ही- जिसके विना वह उपपद्यमान है ऐसे घट पटादि को भी कल्पना क्यों न करायेगा? जबकि दोनों में कोई मुख्य भेद तो है नहीं। दूसरा दोष यह है कि अगर 'अर्थधर्म व्यापार के विना अनुपपद्यमान है । इस प्रकार निश्चित न होने पर भी अर्थधर्म ज्ञातृव्यापार की कल्पना करायेगा तो अनुमान में लिग (हेतु) भी 'साध्य होने पर ही हेतू होता है। इस प्रकार साध्य के साथ नियतरूप से जब निश्चित नहीं होगा तब भी अपने साध्य का बोध उत्पन्न कर देगा। ऐसा होने पर अर्थापत्ति ही परोक्षार्थनिर्णय को उत्पन्न कर देगी, तो अनुमानप्रमाण की आवश्यकता न रहने से मीमांसक का 'छ: प्रमाण होते हैं इस वाद का स्वीकार हत-प्रहत हो जायेगा। [अर्थापति अनुमान का भेद समाप्त होने की आपत्ति ] व्यापारवादी:- (२) दूसरा कल्प हम मान लेगे कि 'अर्थप्रकाशतास्वरूप अर्थधर्म व्यापार के विना अनुपपद्यमान है' ऐसा निश्चित होने पर ही वह अर्थधर्म व्यापार की कल्पना कराता है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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