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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
न च दोषाऽज्ञानाद् दोषाभाव', सत्स्वपि दोषेषु तदज्ञानस्य सम्भवात् । सम्यगज्ञानोत्पादनशक्तिवपरीत्येन मिथ्याप्रत्ययोत्पादनयोग्य हि रूपं तिमिरादिनिमित्तमिन्द्रियदोषः, स चातीन्द्रियत्वात् सन्नपि नोपलक्ष्यते । न च दोषा ज्ञानेन व्याप्ताः येन तन्निवृत्त्या निवर्तेरन् । दोषाभावज्ञाने तु संवादा. द्यपेक्षायां सैवाऽनवस्था प्राक प्रतिपादिता।
एतेनैतदपि निराकृतं यदुक्तं भट्टन-[ द्र० तत्त्वसंग्रहे २८६१-२-३ ] तस्मात् स्वतः प्रमाणत्वं सर्वत्रौत्सगिकं स्थितं । बाध-कारणदुष्टत्वज्ञानाभ्यां तदपोद्यते। पराधीनेऽपि चैतस्मिन्नानवस्था प्रसज्यते । प्रमाणाधीनमेतद्धि स्वतस्तच्च प्रतिष्ठितम् ॥ प्रमाणं हि प्रमाणेन यथा नान्येन साध्यते । न सिध्यत्यप्रमाणत्वमप्रमाणात तथैव हि ।। इति ।
"ज्ञान की जब स्वतः प्रमाणता मानते हैं तब दूसरे किसी ( संवादादि ) के अन्वेषण की जरूर नहीं है । और कारण दोष का ज्ञान न होने से अप्रामाण्य की शंका अनायास निवृत्त होती है।''
ऐसे समाधान की उद्घोषणा भी व्यर्थ है क्योंकि कारणदोष ज्ञान और संवादादि की चर्चा कर के इस समाधान का प्रत्युत्तर पहले ही प्रदर्शित किया गया है।
[दोष का ज्ञान होने का नियम नहीं है। दोषज्ञान न होने मात्र से दोषों के अभाव की कल्पना कर लेना ठीक नहीं है क्योंकि दोष होने पर भी उसका ज्ञान न हो यह संभवित है । सम्यग् ज्ञान के उत्पादन की शक्ति से विपरीत यानी मिथ्याज्ञान को उत्पन्न करने में योग्य ऐसा जो तिमिरादिरोग निमित्त इन्द्रिय का रूप यह एक ऐसा दोष है जो अतीतिन्द्रिय होने से विद्यमान होने पर भी उपलक्षित नहीं होता। कदाचित् यह तर्क किया जाय कि-'दोष रहने पर उसका ज्ञान अवश्य होता, ज्ञान नहीं होता है उसी से दोषाभाव सिद्ध होता है तो यह तर्क ठीक नहीं. क्योंकि दोषज्ञान दोष का व्यापक होता तब तो दोषज्ञ से अर्थात उसके अभाव से दोषों की निवत्ति होने की शक्यता थी किन्त दोषज्ञान दोष का है इसलिये दोषज्ञान के अभाव से दोष के अभाव का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता । कहने का तात्पर्य यह है कि ज्ञान के प्रामाण्य का निर्णय दोषाभाव के निर्णय के विना नहीं हो सकता, और दोषाभावनिर्णय के लिये संवादादि की अपेक्षा ध्र व होने से अनवस्था दोष लगता है यह पहले कहा हुआ है।
[विस्तृत मीमांसकोक्ति का निराकरण ] पूर्वोक्त विवेचन से यह कथन भी निराकृत हो जाता है जो तस्मात स्वतः' इत्यादि कारिका से भट्ट ने कहा है-[ ये कारिका वर्तमान में श्लोकवात्तिक में नहीं, तत्त्वसंग्रह में उपलब्ध हैं। ]
"इसलिये ( परतः प्रामाण्य संभवित न होने से ) सभी ज्ञानों का उत्सर्गमार्ग से स्वतः प्रामाण्य सिद्ध होता है । केवल दो स्थानों में उसका अपवाद है-१ जहां बाध ज्ञान होता है और २जहां कारणों के दुष्टत्व यानी दोषों का ज्ञान होता है।
अप्रामाण्य का ज्ञान यद्यपि परावलंबी यानी बाधज्ञानादि पर अवलम्बित है फिर भी यहाँ अनवस्था को प्रवेश नहीं है । क्योंकि बाधज्ञान प्रमाणाधीन है और प्रमाण का प्रामाण्य स्वतःसिद्ध है।
प्रमाण जैसे अन्य प्रमाण से सिद्ध नहीं होता उसी प्रकार अप्रमाण्य भी अप्रमाण ज्ञान से सिद्ध नहीं होता। "किंतु प्रमाणज्ञान से ही सिद्ध होता है।"
* निराकृतमित्यस्याने 'तथाहि' [ पृ० ८६-१ ] इत्यादिना योगः ।
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