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प्रथम खण्ड-का० १- प्रामाण्यवाद
नाऽयं छव्यवहारः प्रस्तुतः येन कतिपयप्रत्ययमात्रं निरूप्यते । न हि प्रमाणमन्तरेण बाधकाशंकानिवृत्तिः, न चाशंकाव्यावर्तकं प्रमाणं भवदभिप्रायेण सम्भवतीत्युक्तम् ।
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तथा कारणदोषज्ञानेऽपि पूर्वेण जाताशंकस्य कारणदोषज्ञानान्तरापेक्षायां कथमनवस्थानिवृत्ति: ? - 'कारणदोषज्ञानस्य तत्कारणदोषग्राहक ज्ञानाभावमात्रतः प्रमाणत्वान्नाऽत्रानवस्था । यदाहयदा स्वतः प्रमाणत्वं तदान्यन्नैव मृग्यते ।
निवर्तते हि मिथ्यात्वं दोषाज्ञानादयत्नतः ॥ [ श्लो० वा० सू० २ श्लो० ५२ ]' - एतच्चानुद्बोध्यम्, प्रागेव विहितोत्तरत्वात् ।
[ तीन-चार ज्ञान की अपेक्षा करने में परापेक्षा का स्त्रीकार ]
यह जो आपने कहा था कि- "पूर्व ज्ञान में अप्रामाण्य की शंका वाला दूसरा ज्ञान हो जाय तो तीसरे ज्ञान की अपेक्षा रहती है और वह तीसरा ज्ञान यदि प्रथम के साथ संवादी हो तब दूसरे ज्ञान से आशंकित अप्रामाण्य की शंका को दूर कर देता है और प्रथम ज्ञान का प्रामाण्य स्वतः सिद्ध होता है । अगर तीसरा ज्ञान भी आशंकित हो जाय तो चौथे ज्ञान से वह दूर हो जाती है । इस प्रकार तीनचार ज्ञान से अधिक की अपेक्षा नहीं रहती" - यह भी ठीक नहीं, क्योंकि इसमें अप्रामाण्यशंका न होने तक प्रथम ज्ञान का प्रामाण्य, फिर अप्रमाण्यशंका होने पर अप्रामाण्य और तीसरे ज्ञान से शंका दूर होने पर पुनः प्रामाण्य, ऐसी तीन अवस्थाएँ देखी जाती है; इस लिये बाधक के विषय में परीक्षक को अन्य अन्य ज्ञान की अपेक्षा अवश्य होगी । अथवा बाधक आदि में भी उसी प्रकार तीन अवस्था के दर्शन से पुनः पुनः शंका करने वाले परीक्षक को अन्य अन्य ज्ञान की अपेक्षा होने पर अनवस्था दोष क्यों नहीं लगेगा ? !
यह भी जो कहा था कि- 'संवाद की अपेक्षा मानने पर स्वतः प्रामाण्य का व्याघात और अनवस्था नहीं है क्योंकि संवाद केवल अप्रामाण्य शंका निवर्त्तन में ही उपयुक्त है' इत्यादि वह भी संगत नहीं है क्योंकि यह वुद्धिमान् विद्वानों के बीच चर्चा हो रही है, कोई छल व्यवहार प्रस्तुत नहीं है जिससे केवल अमुक अमुक ही ज्ञान के प्रामाण्य का विचार किया जाय और संवादकज्ञानों के प्रामाण्य का विचार छोड दिया जाय। यह पहले भी कह दिया है कि प्रमाण के विना बाधकशंका का निवर्त्तन अशक्य है और आप के अभिप्राय से बाधकशंका का निवर्त्तक प्रमाण सम्भवयुक्त नहीं है ।
[ कारणदोषज्ञान की अपेक्षा में अनवस्था ]
यह भी एक प्रश्न है - मिथ्याज्ञान के बाद जो उसके कारणों में दोषावगाही ज्ञान होगा 'वह प्रमाण है या नहीं' ऐसी अगर भूतपूर्व मिथ्याज्ञान साधर्म्य देखकर जिसको शंका हो जायगी उसके निवारण के लिये उस ज्ञान के कारणों के दोषों का अन्वेषण करने पर अन्य अन्य कारणदोषज्ञान की अपेक्षा होती चलेगी तो इस प्रकार अनवस्था दोष क्यों नहीं लगेगा ?
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इसके समाधान में स्वतः प्रमाणवादी कहें कि - "कारणदोषज्ञानोत्पत्ति के बाद उस ज्ञान के उत्पादक कारणों का दोषग्राही ज्ञान अगर उत्पन्न होगा तब तो वह कारणदोषज्ञान के अप्रामाण्य को प्रसिद्ध कर देगा किन्तु ऐसा ज्ञान उत्पन्न नहीं होगा तब तो उसके अभाव मात्र से ही कारणदोषज्ञान प्रमाणरूप से सिद्ध हो जाने से कोई अनवस्था को अवकाश ही नहीं होगा । जैसे कि श्लोकवार्तिक में कहा है
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