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________________ ७४ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ यदप्युक्तम्-[ पृ० २८-६ ] "किमेकविषयं, भिन्नविषयं वा संवादज्ञानं पूर्वस्य प्रामाण्यनिश्चायकमित्यादि . तत्रकसंघातत्तिनो विषयदयस्य रूपस्पर्शादिलक्षणस्यकसामरयधीनतया परस्परमव्यभिचारात, स्पर्शादिज्ञानं जाग्रदवस्थायामभिवांछितस्पर्शादिव्यतिरेकेणाऽसम्भवद्भिन्नविषयमपि स्वविषयाभावेऽप्याशंक्यमान-रूपज्ञानस्य प्रामाण्यं निश्चाययतीति (न ?) तत्संगतमेव (म ?)। प्रत एव रूपाद्यर्थाविनाभावित्वाद् ध्वनीनां तद्विशेषशंकायां कस्याश्चिद्वीणादिरूपप्रतिपत्तौ तद्विशेषशंकाव्यावृत्तस्तद्रूपदर्शनसंवादादपि प्रामाण्यनिश्चयः सिद्धो भवति । पहले जो कहा गया कि-यदि संवाद से पूर्व ज्ञान का प्रामाण्य निश्चित किया जाता है, तब तो श्रोत्रेन्द्रिय से होने वाली बुद्धि अप्रमाण हो जाएगी क्योंकि बाद में होने वाली अन्य श्रोत्र बुद्धियों के साथ इसका संबंध ही नहीं हो पाता। तो वे इसका प्रामाण्य कैसे निश्चित कर सके ? रक्तादि रूप अवस्थित रहता है तो प्रथम बुद्धि के बाद होने वाली बुद्धि खोज कर सकती है कि यह वही रूप है या अन्य । किन्तु शब्द तो सुनते ही नष्ट हो गया, इसकी बुद्धि की यथार्थता कैसे निश्चित कर सकेगे? यह न हो सकने से श्रोत्रबुद्धि प्रमाण रूप से नहीं ग्रहण कर सकते हैं। (तदप्ययुक्तम् गीतादि.... ) यह कथन भी युक्त नहीं, क्योंकि गीत आदि शब्दों की श्रोत्रबुद्धि स्वयं अर्थक्रिया के अनुभव रूप होने से उसका प्रामाण्य स्वतः सिद्ध है। रास्ते में देखा, 'वह रजत है' किन्तु वहां तो जाकर उसे हाथ में ऊठाकर देखना पड़ता है कि वह सचमुच रजत है या नहीं ? जब कि गीत-शब्द सुनने के बाद देखना नहीं पड़ता कि वे सचमुच गीत-शद है या नहीं ? वे तो सुनते ही उसी रूप में होने का निश्चित हो जाता है । इस लिए श्रोत्रवृद्धि स्वतः प्रमाण है । (तथा चित्रगतबद्धरपि....) इसी प्रकार किसी चित्र में आलेखित रूप की बुद्धि का भी प्रामाण्य स्वत:सिद्ध है । क्योंकि वह बुद्धि भी स्वयं अर्थक्रिया के अनुभवरूप होती है । गन्ध, स्पर्श व रस की बुद्धियां स्वयं अर्थक्रियानुभव रूप है यह सुप्रसिद्ध है। जैसे कि नासिका के साथ गन्ध का सम्बन्ध होते ही यह सुगन्ध है या दुर्गन्ध इसका पता लग जाता है। यह भी जो पहले कहा गया कि-पूर्व ज्ञान का संवादकज्ञान क्या एक ही विषय का हो कर पूर्वज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक है या भिन्न विषय का? इत्यादि, वहां भी यह समझने योग्य है एक संघात अर्थात अवयवी में रहे हए रूप स्पर्श स्वरूप दो विषय एक सामग्री के अधीन होने में अव्यभिचरित है, जैसे कि मुलायम रक्ततन्तु से बने हए वस्त्र में रक्त रूप व मुलायम स्पर्श एक दूसरे को व्याप्त हो कर ही रहते हैं, इसलिये जाग्रत अवस्था में अभिवांछित यानी स्पर्श-रूपादि के अभाव में उसका संभव ही नहीं है. अत वह स्पर्शज्ञान यद्यपि पविषयकन रूप भिन्न स्पर्श विषयक है फिर भी यानी रूपविषयता न होने पर भी जिसमें प्रामाण्य आ ऐसे रूपज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय [ अविनाभाव के कारण ] करा देता है । अतः भिन्नविषयक ज्ञान से भी प्रामाण्य निश्चय होने की बात सर्वथा संगत ही है। (अत एव रूपाद्यविनाभाविनां ध्वनीनां....) प्रामाण्य एकान्तेन एकविषयक संवादक ज्ञान से ही निश्चित हो ऐसा है, नहीं किन्तु कहीं भिन्न विषयक संवाद से भी प्रामाण्य का निश्चय करना पड़ता है। इसीलिए रूपादि के साथ ही संबंध रखने वाले ध्वनियों में अलबत्ता ध्वनि सुनकर यह ध्वनि है ऐसा प्रमाणभूत ज्ञान हो जाता है तो वहां ध्वनिज्ञान का स्वतः प्रामाण्य हुआ, तथापि वहाँ 'कौनसे वाद्य cिhc Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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