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प्रथमखण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद
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अत एवेदमपि निरस्तं यदुक्तं-'अनिश्चितप्रामाण्यादपि साधनज्ञानात् प्रवृत्तावर्थक्रियाज्ञानोत्पत्ताववाप्तफला अपि प्रेक्षावन्तो यथा साधनज्ञानप्रामाण्यविचारणायां मनः प्ररिणदधति,- अन्यथा तत्समानरूपापरसाधनज्ञानप्रामाण्यनिश्चयपूर्विकाऽन्यदा प्रवृत्तिर्न स्यात,-तथाऽर्थक्रियाज्ञानस्यापि प्रामाण्यविचारणायां प्रेक्षावत्तयैव ते प्राद्रियन्ते, अन्यथाऽसिद्धप्रामाण्यादर्थनियाज्ञानात्पूर्वस्य प्रामाण्यनिश्चय एव न स्यादिति । 'अवाप्तफलत्वमनर्थकमिति'-तदप्ययुक्तं, अर्थक्रियाज्ञानस्य स्वत एव प्रामाण्यं, साधनज्ञानस्य तु तज्जनकत्वेन प्रामाण्य मिति प्रतिपादितत्वात् [ पृ. ७१ पं. ५ ] ।
यदभ्यधायि-'यदि संवादापर्वस्य प्रामाण्यं निश्चीयते तदा-श्रोत्रधीरप्रमाणं स्यादितराभिरसंगतेः' [ श्लो० वा०२-७७ ] इति-तदप्ययुक्तम्-गीतादिविषयायाः श्रोत्रबद्धरर्थक्रियानुभवरूपत्वेन स्वत एव प्रामाण्यसिद्धेः । तथा चित्रगतरूपबुद्धेरपि स्वत एव प्रामाण्यसिद्धिः, अर्थक्रियानुभवरूपत्वात् । गन्धस्पर्शरसबुद्धीनां त्वर्थक्रियानुभवरूपत्वं सुप्रसिद्धमेव ।
सकता । पूर्व के साधन निर्मासि ज्ञान में ऐसी फल प्रापण शक्ति है इसीलिए तो फल दर्शन से पूर्वज्ञान की यह शक्ति ज्ञात होती है, फलतः प्रामाण्य ज्ञात होता है। जब ऐसा स्वीकार करेंगे तब फलरूप अर्थक्रिया ज्ञान में भी ऐसी फलान्तर प्रापण शक्ति हो तभी वह प्रमाणभूत हो सकता है, इसके लिए इसका फल देखना होगा जिससे इसका फलप्रापणशक्तिरूप प्रामाण्य निश्चित हो, इस प्रकार परवादी के द्वारा प्रेरित अनवस्था असंगत है, क्योंकि संवादरूप फल-अर्थक्रिया का ज्ञान स्वतःसिद्ध प्रमाण है ।
इसीलिये, पहले जो कहा था कि-"जिस प्रकार प्रेक्षावान पुरुष प्रवर्तक ज्ञान का प्रामाण्य निश्चित न रहने पर भी उस ज्ञान से अगर प्रवृत्ति करते हैं और उन्हें अगर कार्य-क्रिया ज्ञान उत्पन्न होता है तब तो वे फलप्राप्तिवाले हो गए, फिर भी प्रेक्षावान होने के कारण जिस प्रकार साधनभूत प्रवर्तकज्ञान के प्रामाण्य की विचारणा में मन लगाते हैं कि लाओ देखने दो कि मेरा साधनज्ञान सच्चा ही था या नहीं ?
(अन्यथा तत्समानरूपापरसाधन....) अगर ऐसी प्रामाण्य खोज न करे और समझता रहे कि पहले 'साधनज्ञान सच्चा है या जूठा' यह तलाश किये बिना ही प्रवृत्ति की थी और वह सफल हुई थी, तब तो उसके समान अपर साधनज्ञान का भी प्रामाण्य निश्चित किये बिना ही प्रवृत्ति कर लेता, किन्तु दरअसल साधनज्ञान के प्रामाण्य निश्चिय पूर्वक ही प्रवृत्ति होती है, वह न बनता ।
___ तो जिस प्रकार साधन ज्ञान के प्रामाण्य का विचार प्रेक्षावान पुरुष करते हैं उसी प्रकार अर्थक्रिया ज्ञान के प्रामाण्य का विचार करने में भी प्रेक्षावत्ता के कारण प्रयत्न करते हैं, अन्यथा जिसका प्रामाण्य निश्चित नहीं है वैसे अर्थक्रिया ज्ञान से पूर्वज्ञान का प्रामाण्य कैसे निश्चित हो सके ? निश्चित न कर सकने से अर्थक्रिया ज्ञान के प्रामाण्य की खोज करना जरूरी है"- वह सब निरस्त हो जाता है । तथा पहले जो कहा कि-'अवाप्तफलत्व' यानी 'अर्थक्रिया ज्ञान में तो फल प्राप्त हो जाने से' इत्यादि यह कहना निरर्थक है, जैसे साधन ज्ञान के बाद में प्रामाण्य विचारणा आवश्यक है वैसे अर्थक्रिया ज्ञान में भी वह आवश्यक है।' इत्यादि, ( तदप्ययुक्तम्, अर्थक्रिया.... ) वह भी अयुक्त है, क्योंकि अर्थक्रिया ज्ञान स्वतः ही प्रमाण है. उसका प्रामाण्य स्वत: निश्चित रहता है, जबकि साधन ज्ञान का प्रामाण्य संवादी अर्थक्रिया ज्ञान का उत्पादक होने से प्रमाणभूत है-यह पहले कहा जा चुका है। * अक्षरश इदं नोक्तं किंतु पृ० २७ मध्येऽर्थत उक्तमित्यवधेयम् ।
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