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कंडुगयं किं व पक्खोडं
? किं वा एत्थं करेमि हं
? ।।
अज्झयणं-२, उद्देसो-२
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[२६१] एवं तिवग्गवावारं चिच्चोरु-दुक्ख-संकडे
पविठ्ठो बाढ-संखेज्जा आवलियाओ किलिस्सिउं ।। [२६२] मुणे हुं कंडुयमेस कंडूये अन्नहा नो उवस्समे
ता एयज्झवसाएणं गोयम ! निसुणेसुं जं करे ।। [२६३] अह तं कुंथु वावाए जड़ नो अन्नत्थ गयं भवे
कंडुएमाणोऽह भित्तादी अनुघसमाणो किलम्मए [२६४] जइ वावाएज्ज तं कुंथु कंडुयमाणो व इयरहा
तो तं अइरोद्दज्झाणम्मि पविढं निच्छयओ मुने ।। [२६५] अह किलामे तओ भयणा रोद्दज्झाणेयरस्स उ
कंडुयमाणस्स उण देहं सुद्धमट्टज्झाणं मुने ।। [२६६] समज्जे रोद्दज्झाणट्ठो उक्कोसं नारगाउयं
दुभ-गित्थी-पंड-तेरिच्छं अज्झाणा समज्जिणे ।। [२६७] कुंथु-पद-फरिस-जणियाओ दुक्खाओ उवसमिच्छया
पच्छ-हल्लप्फलीभूते जमवत्थंतरं वए || [२६८] विवण्ण-मुहलावण्णे अइदीने विमण-दुम्मणे
सुन्ने वुन्ने य मूढ-दिसे मंदर-दर-दीह-निस्ससे ।। [२६९] अविस्साम-दुक्खहेऊयं असुहं तेरिच्छ-नारयं
कम्मं निबंधइत्ताणं भमिही भव-परंपरं ।। [२७०] एवं खओवसमाओ तं कुंथुवइयरजं दुहं
कह कह वि बहु किलेसेणं जइ खणमेक्कं तु उवसमे ।। [२७१] ता मह किलेसमुत्तिणं सुहियं से अत्ताणयं
मण्णंतो पमुइओ हिट्ठो सत्थचित्तो वि चिट्ठई ।। [२७२] चिंतइ किल निव्वुओमि अहं निद्दलियं दुक्खं पि मे
कंडुयणादीहिं सयमेव न मुणे एवं जहा मए ।। [२७३] रोद्दज्झाणगएण इहं अट्टज्झाणे तहेव य
संवग्गइत्ता उ तं दुक्खं अनंतानंतगुणं कडं ।। [२७४] जं चाणसमयमनवरयं जहा राई तहा दिनं
दुहमेवानुभवमाणस्स वीसामो नो भवेज्जमो ।। [२७५] खणं पि नरय-तिरिएस् सागरोवम-संखया
रस-रस-विलिज्जए हिययं जं वा इच्छंत ताण वि ।। [२७६] अहवा किं कुंथु-जणियाओ मुक्को सो दुक्ख-संकडा
खीणट्ठ-कम्म-परीणामो भवेज्जे जणुमेत्तेणव उ ।। [२७७] कुंथुमुवलक्खणं इहइं सव्व पच्छक्खं दुक्खदं
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दीपरत्नसागर संशोधितः]
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[३९-महानिसीह