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श्रमण प्रतिक्रमण
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२. वचनगुप्ति-विषय, कषाय आदि सावध प्रवृत्ति से वचन के निवर्तन तथा बचन-निग्रह में प्रमाद किया हो, तस्स मिच्छा मि
दुक्कडं । ३. कायगुप्ति --उठने-बैठने, चलने-सोने आदि की असंयत प्रवृत्ति से काया के निवर्तन तथा काय-निग्रह में प्रमाद किया हो, तस्स
मिच्छा मि दुक्कडं । ४. तप अतिचार-द्वादशविध तप के आचरण में कोई विराधना की हो, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । ५. वीर्यातिचार-प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, चउवीसत्थव आदि आवश्यक क्रिया तथा सेवा-शुश्रूषा आदि में शक्ति का संगोपन किया हो, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । सामाचारी-बाहर जाते समय 'आवस्सई', वापिस लौटने पर 'निस्सही', परिष्ठापन आदि से पूर्व 'अणुजाणह जस्स उग्गह' और उसके बाद 'वोसिरे वसिरे' कहना आदि सामाचारी के आचरण में तथा मूलगुण, उत्तरगुण में प्रमाद किया हो, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । अठारह पाप
प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परिपरिवाद, रति-अरति, मायामृषा, मिथ्यादर्शनशल्य-इन पाप-स्थानों का आचरण किया हो, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।
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