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________________ श्रमण प्रतिक्रमण ५१ १५. विनयोपग-विनम्र होना, अभिमान न करना। १६. धृतिमति-धैर्ययुक्त बुद्धि, अदीनता। १७. संवेग-संसार-वैराग्य अथवा मोक्ष की अभिलाषा। १८. प्रणिधि-अध्यवसाय की एकाग्रता । १९. सुविधि-सद् अनुष्ठान । २०. संवर–आस्रवों का निरोध । २१. आत्मदोषोपसंहार-अपने दोषों का उपसंहरण । २२. सर्वकामविरक्तता-सर्व विषयों से विमुखता। २३. प्रत्याख्यान-मूलगुण विषयक त्याग । २४. प्रत्याख्यान-उत्तरगुण विषयक त्याग । २५. व्युत्सर्ग-शरीर, भक्तपान, उपधि तथा कषाय का विसर्जन । २६. अप्रमाद-प्रमाद का वर्जन । २७. लवालव-सामाचारी के पालन में सतत जागरूक रहना । २८. ध्यानसंवरयोग-महाप्राण ध्यान की साधना करना। २९. मारणांतिक उदय-मारणांतिक वेदना का उदय होने पर भी क्षुब्ध न होना, शांत और प्रसन्न रहना । ३०. संग-परिज्ञा–आसक्ति का त्याग । ३१. प्रायश्चित्तकरण-दोष-विशुद्धि का अनुष्ठान करना । ३२. मारणांतिक आराधना-मृत्युकाल में आराधना करना । २७. आशाताना ऐसी प्रवृत्ति जिससे ज्ञान, दर्शन, चारित्र, विनय आदि में न्यूनता आए, उसकी उपलब्धि में बाधा आए, वह आशातना कहलाती है । आशातना के तेतीस प्रकार हैं । उसका आकलन भी दो प्रकार से प्राप्त होता है १. 'अरिहंतों की आशातना' से लेकर 'स्वाध्याय काल में स्वाध्याय न किया हो' तक तेतीस की संख्या होती है । ये तेतीस आशातनाएं हैं। २. समवाओ (३३॥१) में उनका आकलन भिन्न प्रकार से है। यह प्रकार अधिक प्रचलित है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003698
Book TitleShraman Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M001
File Size3 MB
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