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श्रमण प्रतिक्रमण
2-07-पारस
मास का है। ८. आरम्भ परित्यागी-यह आठवीं प्रतिमा है। इसका कालमान आठ
मास का है। ९. प्रेष्य-परित्यागी-यह नौवीं प्रतिमा है । इसका कालमान नौ मास
का है। १०. उद्दिष्ट भक्त-परित्यागी-यह दसवीं प्रतिमा है। इसका कालमान ___ दस मास का है। ११. श्रमणभूत--यह ग्यारहवीं प्रतिमा है । इसका कालमान ग्यारह मास
का है। ६. भिक्षु को बारह प्रतिमाएं (समवाओ, १२।१) .. १. एकमासिकी
७ सप्तमासिकी २. द्विमासिकी
८. सात दिनरात की ३. त्रिमासिकी
९. सात दिनरात की ४. चतु:मासिकी
१०. सात दिन रात की ५. पञ्चमासिकी
११. अहोरात्रिकी ६. षण्मासिकी
१२. एकरात्रिकी दृढ़ संहननवाला और धृतियुक्त महासत्त्व, व्युत्सृष्ट, त्यक्त-देह, उपसर्गसह मुनि, जो पूर्वधर है, वह इन प्रतिमाओं को स्वीकार करता है । इन प्रतिमाओं में भिन्न-भिन्न तपस्याओं, आसनों तथा स्थानों का निर्देश है। भक्तपान का भी एक निश्चित क्रम है। ७. तेरह क्रियास्थान (सूयगडो, २।२।३-१६)
क्रिया का सामान्य अर्थ है प्रवृत्ति । प्रस्तुत प्रसंग में उन प्रवृत्तियों का संकलन है जो कर्मबंध की हेतुभूत हैं । क्रियाओं के तीन प्रकार के वर्गीकरण प्राप्त हैं। पहला वर्गीकरण है--सूत्रकृतांग सूत्र का। उसके अनुसार तेरह क्रियाओं का उल्लेख इस प्रकार है
१. अर्थदण्ड-अपने लिए या दूसरे के लिए हिंसा की प्रवृत्ति करना २. अनर्थदण्ड--निष्प्रयोजन हिंसा की प्रवृत्ति करना ३. हिंसादण्ड-प्रतिशोध की भावना से हिंसा की प्रवृत्ति करना ४. अकस्मात्दण्ड-किसी को मारने के प्रयत्न में किसी दूसरे को मार
डालना ५. दृष्टिदोषदण्ड--दृष्टि की विपरीतता से होने वाली हिंसक प्रवृत्ति
जैसे अचोर को चोर, मित्र को अमित्र मानकर मार डालना १. देखें-समवाओ ११/१, टिप्पण पृ० ५४-५६ । २. देखें-आवश्यक, हारिभद्रीया वृत्ति भाग २, पृष्ठ १५०,१५१ । ।
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