________________
युग
उस समय वर्षा ऋतु का चतुर्थ मास था । कृष्ण पक्ष था । पन्द्रहवाँ दिन था । पक्ष की चरम रात्रि अमावस्या थी । एक के पाँच संवत्सर होते हैं । उनमें यह चन्द्रनाभ द्वितीय संवत्सर था। एक वर्ष के बारह महीने होते हैं उनमें वह प्रीतीवर्द्धन नामक चतुर्थ मास था। एक मास में दो पक्ष होते हैं उनमें वह नन्दीवर्धन नाम का पक्ष था । एक पक्ष के पन्द्रह दिन होते हैं उनमें अग्निवेश्य नामक पन्द्रहवाँ दिन था जिसे उपशम नाम से कहा जाता है। पक्ष में पन्द्रह रातें होती हैं। वह देवानन्दा नाम की पन्द्रहवीं रात्रि थी जो निरति के नाम से विश्रुत थी । उस समय अर्च नाम का लव था, मुहूर्त्त प्राण था, सिंह नाम का स्तोक था, नाग नाम का चरण था, एक अहोरात्रि में तीस मुहूर्त्त होते हैं उस समय सर्वार्थसिद्ध मुहूर्त्त था। स्वाति नक्षत्र में चन्द्रमा का योग था । ९९
गौतम स्वामी : केवलज्ञानी
जैसे पहले कहा गया है कि प्रभु महावीर ने अपने परिनिर्वाण से पूर्व देव शर्मा को प्रतिबोध देने भेजा था । दूर भेजने का कारण यह था कि निर्वाण के समय अधिक स्नेहाकुल न हो ।
देव शर्मा को प्रतिबोध देकर जब लौटने लगे, तो रात्रि हो चुकी थी । साधु चर्या का ध्यान रखकर वह उसी गाँव में रुक गये। यहीं उन्हें प्रभु महावीर के निर्वाण का समाचार मिला। आज गौतम को अपूर्व वज्रघात लगा । प्रभु महावीर के अन्तेवासी गौतम कभी एक पल के लिए भी प्रभु से अलग नहीं हुए थे। उन्हें इस बात का ज्यादा दुःख था कि "प्रभु ने मुझे अन्तिम समय अपने दर्शन करने का सौभाग्य क्यों न दिया ? क्या मुझे मोक्षमार्ग में उन्होंने बाधक समझा ? क्या मैं उनकी मोक्षलक्ष्मी छीन लेता ? क्या मैं अज्ञानी था जो सारी आयु प्रभु महावीर को समझ न सका ?”
कुछ पल के लिए गौतम फूट-फूटकर रोने लगे। फिर चीखकर कहने लगे - "प्रभु ! आप तो सर्वज्ञ थे। मेरी कमी आप बता देते । मुझे दूर करने की जरूरत क्या थी ?
अब मैं किसे देखूँगा? किसे गुरु मानकर प्रणाम करूँगा। अब मुझे 'गोयमा- गोयमा' कौन कहेगा ? अब मैं किससे प्रश्नों के समाधान पाऊँगा ?
इस प्रकार विलाप चलता रहा । गौतम दुःखी होते गये। मन की स्थिति बदली। कुछ सँभले और सोचने लगे
'मैं भी कितना अज्ञानी था। सारी आयु, उस वीतराग परमात्मा को पहचान न सका। वह मुझे हर बार प्रमाद - त्याग का उपदेश देते। पर मैं उनके स्नेह को त्याग न सका । प्रभु महावीर तो जन्मजात राग-द्वेष से मुक्त थे । वह तो हमारे उपकारी थे। उन्होंने हमारे कल्याण के लिये राजपाट छोड़ा। परिवार का मोह तोड़ा। जंगलों में कष्ट झेले। वह सब हमारे लिये ही तो थे । उनकी कृपा से संसार के जीव मोक्षमार्ग पा गये। वह मेरे अकेले के थोड़े ही थे। वह तो सबके थे। वह राग नहीं थे। उनकी मीठी वाणी में मुझे राग दिखाई देता था । वह सच कहते थे कि मृत्यु शाश्वत है, इसका कोई भरोसा नहीं। राग-द्वेष के कारण कर्मबन्ध होता है। यह कर्म बीज है। मुझे प्रभु महावीर की शिक्षा को ध्यान में रखकर रागद्वेष त्यागना है।'
इस प्रकार चिंतन करते-करते गौतम के सब बंधन छूट गये, उन्हें भी आत्मा को परमात्मा बनाने वाला केवलज्ञान प्राप्त हो गया।
एक रात्रि में दो मंगलमय घटनायें घट गईं। प्रभु महावीर का निर्वाण, गौतम स्वामी का केवलज्ञान । देवों ने दिव्यध्वनि के साथ पुष्प वृष्टि की।
गणधर इन्द्रभूति गौतम को मुक्ति का वरदान
हम पिछले घटनाक्रम में वर्णन करते आये हैं कि गणधर गौतम को केवलज्ञान उत्पन्न नहीं हो रहा था। उनके शिष्य प्रशिष्य कब के आत्म-कल्याण कर मोक्ष पधार चुके थे। वह स्वयं हर समय तपस्या, साधना, ध्यान, स्वाध्याय में लीन रहते थे। पर वह अब भी छद्मस्थ ही रहे। उनके मन को गहन चोट लगी।
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
२४९
www.jainelibrary.org