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अम्बड़ परिव्राजक
एक दिन भिक्षा के लिए परिभ्रमण करते हुए गणधर गौतम ने सुना कि अम्बड़ संन्यासी कम्पिलपुर में एक साथ सौ घरों में आहार ग्रहण करता है और वह सौ ही घरों में दिखलाई देता है।
गौतम ने भगवान से पूछा - "भगवन् ! क्या यह सत्य है ?"
महावीर - "गौतम ! अम्बड़ परिव्राजक स्वभाव से विनीत और प्रकृति से भद्र है । निरन्तर बेले - बेले की तपस्या के साथ आतापना लेने से और शुभ परिणामों से वीर्यलब्धि और वैक्रियलब्धि के साथ अवधिज्ञान भी उसे प्राप्त हुआ है, जिसके कारण वह सौ रूप बनाकर सौ घरों में दिखलाई देता है और सौ घरों में आहार ग्रहण करता है, यह सत्य है ।"
गौतम - "प्रभो ! क्या अम्बड़ परिव्राजक आपके पास श्रमणधर्म ग्रहण करेगा ?"
महावीर-‘“अम्बड़ जीवाजीव का ज्ञाता श्रमणोपासक है। वह उपासक जीवन में ही आयु पूर्ण करेगा, किन्तु श्रमणधर्म स्वीकार नहीं करेगा। अम्बड़ स्थूल हिंसा, स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान से विरत तथा सर्वथा ब्रह्मचारी और पूर्ण सन्तोषी है। वह यात्रा में चलते हुए मार्ग में आए पानी के अतिरिक्त किसी नदी, कूप या तालाब आदि में नहीं उतरता है। रथ, गाड़ी, पालकी आदि यान अथवा हाथी, घोड़ा आदि किसी भी वाहन पर नहीं बैठता है, केवल पैदल चलता है। खेल, तमाशे, नाटक आदि नहीं देखता है और न राजकथा, देशकथा आदि ही करता है । वह हरी वनस्पति का छेदन-भेदन और स्पर्श भी नहीं करता। वह तुम्बा, काष्ठ-पात्र, और मृत्तिकाभाजन के अतिरिक्त लोह, त्रपु, ताम्र, जस्ता, सीसा, चांदी, सोना आदि किसी प्रकार का धातुपात्र नहीं रखता है। एक ताम्रमय पवित्रक के अतिरिक्त किसी प्रकार का आभूषण धारण नहीं करता । गेरुआ चादर के अतिरिक्त किसी अन्य रंग के वस्त्र धारण नहीं करता । शरीर पर गंगा की मिट्टी के लेप के सिवाय चन्दन, केसर आदि का भी विलेपन नहीं करता । जो भोजन अपने लिए बनाया है, खरीदा है या अन्य के द्वारा लाया गया है, वह भोजन ग्रहण नहीं करता । उसने स्नान और पीने के लिए जल का भी प्रमाण कर रखा है, वह छाना हुआ और दिया हुआ जल ग्रहण करता है किन्तु अपने हाथ से जलाशय से ग्रहण नहीं करता।"
गौतम - "अम्बड़ आयु पूर्ण कर किस गति में जायेगा ?"
महावीर - " अनेक वर्षों तक साधना का जीवन व्यतीत कर अम्बड़ संन्यासी अन्त में एक मास के अनशन की आराधना कर ब्रह्म देवलोक में देव बनेगा और अन्त में अम्बड़ का जीव महाविदेह में मनुष्य जन्म पाकर निर्वाण प्राप्त करेगा। ७१
कम्पिलपुर से भगवान ने पुनः विदेह भूमि की ओर प्रस्थान किया और इकतीसवाँ वर्षावास वैशाली में किया। बत्तीसवाँ वर्ष : गांगेय अनगार
वैशालीका वर्षावास पूर्ण होने पर भगवान ने काशी - कौशल के प्रदेशों में परिभ्रमण किया और पुनः ग्रीष्मकाल में विदेह भूमि की ओर लौटे। भगवान महावीर वाणिज्यग्राम के बाहर पधारे। दूतिपलाश उद्यान में विराजे । प्रवचन पूर्ण होने पर श्रोतागण अपने-अपने घरों की ओर प्रस्थान कर चुके थे। उस समय गांगेय नामक एक पार्श्वापत्य मुनि भगवान के सन्निकट आये। भगवान से कुछ दूर पर खड़े रहकर उन्होंने पूछा- “भगवन् ! नरकावास में नारक सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर ? ७१
महावीर - "गांगेय ! नारक सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी ।"
गांगेय-“भगवन् ! असुरकुमारादि भवनपति देव सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर ?” महावीर - "असुरकुमारादि भवनपति देव सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी । " गांगेय–“भगवन् ! पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय जीव सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर ?”
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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