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________________ सोमिल एक सौ छात्रों के साथ अपने घर से निकला और वाणिज्यग्राम के मध्य में से होता हुआ दूतिपलास पहुँचा । वहाँ भगवान से कुछ दूर खड़े रहकर बोला- “भगवन् ! तुम्हारे सिद्धान्त में यात्रा है ? यापनीय है ? अव्याबाध है ? प्रासुक विहार है ?" महावीर - "हाँ, सोमिल ! मेरे यहाँ यात्रा भी है, यापनीय भी । अव्याबाध भी है और प्रासुक विहार भी है।" सोमिल - "भगवन् ! आपकी यात्रा क्या है ?" महावीर - "तप, नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यान और आवश्यकादि योगों में जो यतना- उद्यम है वह मेरी यात्रा है।" सोमिल - "भगवन् ! आपका यापनीय क्या है ?" महावीर - "सोमिल ! यापनीय दो प्रकार का कहा है- एक इन्द्रिय-यापनीय और दूसरा नोइन्द्रिय- यापनीय । श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, प्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय तथा स्पर्शेन्द्रिय इन पाँच इन्द्रियों को वश में रखता हूँ - यह मेरा 'इन्द्रिय-यापनीय' है और मेरे क्रोध, मान, माया, लोभ विच्छिन्न हो गये हैं। इन कषायों का कभी प्रादुर्भाव नहीं होता । यह मेरा 'नोइन्द्रिय-यापनीय' है।" सोमिल - "भगवन् ! आपका अव्याबाध क्या है ?" महावीर - "सोमिल ! मेरे शरीरगत वातिक, पैत्तिक, श्लेष्मिक, सान्निपातिक आदि विविध रोगातङ्क दोष उपशान्त हो गये हैं । कभी वे प्रकट नहीं होते हैं । यही मेरा अव्याबाध है ।" सोमिल–‘“भगवन् ! आपका प्रासुक विहार क्या है ?" महावीर -‘"सोमिल ! आरामों, उद्यानों, देवकुलों, सभाओं, प्रपाओं और स्त्री-पशु-पण्डक वर्जित बस्तियों में तथा कल्पनीय पीठफलक, शय्या, संस्तारक स्वीकार करके विचरता हूँ। यही मेरा प्रासुक विहार है।" प्रासुक सोमिल-"भगवन् ! सरिसवय आपके भक्ष्य हैं या अभक्ष्य ?” महावीर - "सरिसवय भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी ।" सोमिल - "दोनों प्रकार कैसे ?" महावीर - "ब्राह्मण्यनयों में (ब्राह्मणों के ग्रन्थों में ) सरिसवय शब्द के दो अर्थ होते हैं- एक मित्र - सरिसवय (सदृशवयाः) और दूसरा धान्य- सरिसवय (सर्षपः) । इनमें मित्र - सरिसवय तीन प्रकार के कहे हैं - ( 9 ) सहजात, (२) सहवर्धित, और (३) सहप्रांशुक्रीडित । ये सरिसवय श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं। धान्य- सरिसवय दो प्रकार के होते हैं - ( १ ) शस्त्र - परिणत, और (२) अशस्त्र - परिणत । इनमें जो अशस्त्र - परिणत होते हैं वे श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं। शस्त्र-परिणत सरिसवय भी दो प्रकार के होते हैं - ( १ ) एषणीय, और (२) अनेषणीय। इनमें अनेषणीय श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं। षणीय भी दो प्रकार के होते हैं - (१) याचित, और (२) अयाचित । इनमें अयाचित श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं । याचित भी दो प्रकार के होते हैं - (१) लब्ध, और (२) अलब्ध। इनमें अलब्ध श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं। केवल शस्त्र - परिणत एषणीय याचित और लब्ध धान्य सरिसवय श्रमण निर्ग्रन्थों को भक्ष्य हैं। इस कारण सरिसवय भक्ष्य भी कहे जा सकते हैं और अभक्ष्य भी ।" सोमिल - "भगवन् ! 'मास' आपको भक्ष्य २१८ Jain Educationa International या अभक्ष्य ?" सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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