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________________ में जो भी सारभूत पदार्थ हाथ लगे उसे लेकर गृह-स्वामी बाहर निकल जाता है। हे भगवन् ! इस जलते हुए संसार दावानल में 'आत्मा' ही मेरा सर्वस्व है। इसको बचाने के लिये इस दावानल-तुल्य संसार से दूर होना ही मेरे लिये हितकर है।" यह कहकर स्कन्दक ने महावीर के पास श्रमणधर्म की दीक्षा ली। श्रमण भगवान ने उसे निर्ग्रन्थ मार्ग में प्रविष्ट कर तत्संबन्धी शिक्षा और समाचारी से परिचय कराया। भगवान की सेवा में रहते, श्रमणधर्म की आराधना करते और जिन-प्रवचन का अभ्यास करते हुए अनगार स्कन्दक ने एकादशाङ्गी का अध्ययन किया। कात्यायन स्कन्दक पहले से ही तपस्वी थे। भगवान महावीर के पास दीक्षित होने के बाद वे और भी विशिष्ट तपस्वी हो गये, भिक्षु-प्रतिमा, गुणरत्न-संवत्सर तप आदि विविध तप और विशिष्ट साधनाओं से कर्मक्षय करने में स्कन्दक ने शक्ति भर प्रयत्न किया और पूरे १२ वर्ष तक श्रामण्य पालने के उपरान्त स्कन्दक अनगार ने अन्त में विपुलाचल पर्वत पर जाकर अनशन कर दिया और समाधिपूर्वक देह छोड 'अच्यत कल्प' नामक स्वर्ग में देवपद प्राप्त किया। वहाँ से महाविदेह में मनुष्य जन्म पाकर पुनः धर्म की आराधना से निर्वाणपद प्राप्त करेंगे। ६१ । छत्रपलास चैत्य से विहार कर भगवान श्रावस्ती के कोष्ठक चैत्य में पधारे। भगवान के आगमन पर श्रावस्ती की प्रजा आपके दर्शन-वन्दन के लिये उमड़ पड़ी। श्रमण भगवान की धर्मदेशना से अनेक भाविक मनुष्यों को धर्म-प्राप्ति हुई, अनेक गृहस्थों ने गृहस्थ धर्म के व्रत लिये जिनमें गाथापति नन्दिनी पिता, उसकी स्त्री अश्विनी १२ करोड़ स्वर्णमुद्राओं के स्वामी थे। गाथापति सालिही पिता और उसकी स्त्री फाल्गुनी के नाम उल्लेखनीय हैं। इनके पास १२ करोड़ स्वर्ण-मुद्रायें और ४ व्रज गायें थीं। श्रावस्ती से भगवान विदेह भूमि की तरफ पधारे और वाणिज्यग्राम में जाकर वर्षावास किया। चौबीसवाँ वर्ष वर्षाकाल पूर्ण होने पर भगवान वाणिज्यग्राम से ब्राह्मणकुण्ड के बहुसाल चैत्य में पधारे। यहाँ पर जमालि अनगार को अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ पृथक् विहार करने की इच्छा हुई, वे उठे और भगवान को वन्दन कर बोले"भगवन् ! आपकी आज्ञा से मैं अपने परिवार के साथ पृथक् विहार करना चाहता हूँ।'' जमालि की इस प्रार्थना का भगवान ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। जमालि ने दूसरी, तीसरी बार भी इसी तरह वन्दनपूर्वक पृथक् विहार की आज्ञा माँगी परन्तु श्रमण भगवान की तरफ से उसे कोई उत्तर नहीं मिला, तब जमालि बिना आज्ञा ही अपने अनुयायी ५०० साधुओं के साथ बहुसाल चैत्य से निकल गया। ब्राह्मणकुण्ड से श्रमण भगवान ने वत्सभूमि में प्रवेश किया और निर्ग्रन्थ प्रवचन का प्रचार करते हुए कौशांबी पधारे । यहाँ पर आपको सूर्य और चन्द्र वन्दन करने के लिए पृथ्वी पर आये। कौशांबी से काशी राष्ट्र में से होकर भगवान राजगृह के गुणशील चैत्य में पधारे। उन दिनों कुछ पापित्य स्थविर ५०० अनगारों के साथ विचरते हुए राजगृह के निकटवर्ती तुंगीया नगरी के पुष्यवतीक चैत्य में आये हुये थे। स्थविरों का आगमन सुनकर तुंगीया के अनेक श्रमणोपासक वन्दन तथा धर्मोपदेश श्रवण करने के लिए उद्यान में गये। श्रमणोपासक तथा सभा के सामने स्थविरों ने चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया जिसे सुनकर श्रमणोपासकगण संतुष्ट हुआ और फिर पूछा--"भगवन् ! संयम का फल क्या है और तप का फल क्या है ?'' स्थविर-"आर्यो ! संयम का फल है 'अनास्रव' और तप का फल है 'निर्जरा'।" श्रमणोपासक-"भगवन् ! यदि संयम का फल अनास्रव और तप का फल 'निर्जरा' है तो देवलोक में देव किस कारण से उत्पन्न होते हैं ?' कालियपुत्र स्थविर-“आर्यो ! प्राथमिक तप से देवलोक में देव उत्पन्न होते हैं।" . सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र १९१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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