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________________ और गेरुआ वस्त्र धारणकर त्रिदंड, कुण्डिका, कञ्चनिका, कटोरिका, बिसिका, केसरिका, छन्नालक, अंकुशक, पवित्रिका तथा गणेत्रिका ले पादुकाएँ पहन आश्रम से निकले और श्रावस्ती के मध्य में होते हुए छत्रपलास चैत्य की सीमा में पहुंचे। उधर भगवान महावीर ने गौतम से कहा- “गौतम ! आज तुम अपने एक पूर्व-परिचित को देखोगे।" गौतम–“भगवन् ! मैं किस पूर्व-परिचित को देखूगा?'' महावीर-“आज तुम कात्यायन स्कन्दक परिव्राजक को देखोगे।'' गौतम-"भगवन् ! यह कैसे ? स्कन्दक यहाँ कैसे मिलेगा?" महावीर-“श्रावस्ती में पिंगलक निर्ग्रन्थ ने स्कन्दक से कुछ प्रश्न पूछे थे जिनका उत्तर वह नहीं दे सका। फिर हमारा यहाँ आगमन सुनकर वह अपने आश्रम में लौट गया और वहाँ से गेरुआ वस्त्र पहन त्रिदण्ड, कुण्डिकादि उपकरण ले यहाँ आने के लिये प्रस्थान कर चुका है। तुम्हारा पूर्व-परिचित स्कन्दक अभी मार्ग में आ रहा है। वह अब बहुत दूर नहीं, थोड़े ही समय में तुम्हें दृष्टिगोचर होगा।' गौतम-"भगवन ! क्या कात्यायन स्कन्दक में आपका शिष्य होने की योग्यता है ?" महावीर-“स्कन्दक में शिष्य होने की योग्यता है और वह हमारा शिष्य हो जायेगा।" भगवान महावीर और गौतम का वार्तालाप हो ही रहा था कि इतने में स्कन्दक समवसरण के निकट आ पहुंचे। उन्हें देखते ही गौतम उठे और सामने जाकर स्वागत करते हुए बोले-“मागध ! क्या यह सच है कि श्रावस्ती में पिंगल निर्ग्रन्थ ने आपसे कुछ प्रश्न पूछे थे और उनका ठीक उत्तर न सूझने पर उसके समाधान के लिये आपका यहाँ आना हुआ है ?" स्कन्दक-"बिलकुल ठीक है। पर गौतम ! ऐसा कौन ज्ञानी और तपस्वी है जिसने मेरे दिल की यह गुप्त बात तुम्हें कह दी?' गौतम-'महानुभाव स्कन्दक ! मेरे धर्माचार्य भगवान महावीर ऐसे ज्ञानी और तपस्वी हैं जो भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों काल के सब भावों को जानते और देखते हैं। इन्हीं महापुरुष के कहने से मैं तुम्हारे दिल की गुप्त बात जान सका हूँ।" स्कन्दक-"अच्छा, तब चलिये गौतम, तुम्हारे धर्माचार्य श्रमण भगवान महावीर को वन्दन कर लूँ।" गौतम-“बहुत अच्छा, चलिये।" इन्द्रभूति गौतम और स्कन्दक दोनों भगवान महावीर के पास पहुंचे। स्कन्दक की दृष्टि उनके तेजस्वी शरीर पर पड़ते ही उनके अलौकिक रूप, रंग और तेज से वह आश्चर्य चकित हो गया। महातपस्वी, महाज्ञानी और दिव्य तेजस्वी महावीर के दर्शनमात्र से स्कन्दक का हृदय हर्षावेग से भर गया। वे भगवान के निकट आये, त्रिप्रदक्षिणापूर्वक वन्दन किया और हाथ जोड़कर सामने खड़े हो गए। स्कन्दक के मनोभाव को प्रकट करते हुए महावीर ने कहा-“स्कन्दक ! पिंगलक के ‘लोक सादि है या अनन्त?' इत्यादि प्रश्नों से तुम्हारे मन में संशय उत्पन्न हुआ है ?" स्कन्दक-“जी हाँ, इस विषय में मेरा मन शंकित है और इसीलिए आपके चरणों में आया हूँ।" महावीर-“स्कन्दक ! द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव-भेद से लोक चार प्रकार का है। द्रव्य स्वरूप से लोक सान्त (अन्तवाला) है, क्योंकि वह धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय रूप केवल पञ्च द्रव्यमय है। क्षेत्रस्वरूप से लोक असंख्यात योजन कोटाकोटि लंबा, असंख्यात योजन कोटाकोटि चौड़ा और असंख्यात योजन कोटाकोटि विस्तृत है, फिर भी वह सान्त है। कालस्वरूप से लोक अनन्त, नित्य और शाश्वत है क्योंकि वह पहले था, अब है और आगे रहेगा। त्रिकालवर्ती होने से कालात्मक लोक अनन्त है और भावस्वरूप से भी लोक अनन्त है, क्योंकि सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र १८९ १८९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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