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________________ सामायिकी व्यक्ति की संख्या आदि द्वार ५७ आकर्ष द्वार पर विवेचन ___ आकर्ष की दोनों व्याख्याओं की अनुप्रेक्षा करते हुए समझा जा सकता है कि "आकर्ष" आत्मा की एक महान् निर्मल ध्यान-शक्ति का सूचक शब्द है। जिस शक्ति के प्रभाव से आत्मा सर्वप्रथम "सम्यक्त्व" प्राप्त करती है, उस ध्यानस्वरूप 'अपूर्वकरण" आदि प्रक्रिया का वर्णन पहले हो चुका है । उसके द्वारा साष्ट समझा जा सकता है कि जो जीव क्षायिक भाव का सम्यक्त्व प्राप्त करते हैं, उन्हें यदि दो भव करने शेष हों तो भी पुनः सम्यक्त्व के लिये एक भी "आकर्ष" करना नहीं पड़ता। चारित्र के लिये तो “आकर्ष" करने पड़ते हैं, परन्तु जो जीव क्षायोपशमिक अथवा उपशम भाव का सम्यक्त्व प्राप्त करते हैं, वे जीव एक भव में जघन्य से एक बार और उत्कृष्ट से चारित्र के लिये एक सौ से नौ सौ बार और शेष तीन सामायिकों के लिये दो से नौ हजार बार "आकर्ष" कर सकते हैं, प्राप्त किया हुआ वारित्र अथवा सम्यक्त्व किसी अशुभ निमित्त के कारण चारित्रमोह अथवा मिथ्यात्वमोहनीय आदि का उदय होने पर पुनः चला जाता है, परन्तु लघुकर्मी जीव शुभ आलम्बन प्राप्त होने पर शुभ ध्यानारूढ़ होकर पुनः उस सम्यक्त्व अथवा चारित्र गुण को आकर्षित (प्राप्त) करता है। जिस प्रकार हाथ में से कोई काँच आदि की बहुमूल्य वस्तु गिर पड़ती है, तब उसका महत्व समझने वाला व्यक्ति उस वस्तु के नीचे गिरकर टूट-फूट जाने से पूर्व अत्यन्त शीघ्रता से नीचे झुककर उस वस्तु को शीघ्र पकड़ने की चेष्टा करता है, उसी प्रकार से प्रबल मोह आदि के उदय से आत्म-सम्पत्ति रूप सामायिक (रत्न) लुट जाने पर उसके महान् फल के स्वाद को नहीं भूल सकने वाली आत्मा सद्गुरु के उपदेश आदि के आलम्बन से ध्यान आदि में प्रबल पुरुषार्थ करके लुटी हुई गुण-सम्पत्ति को तत्काल पुनः प्राप्त करती है। इस प्रकार 'आकर्ष' सम्यक्त्व गुण को आकर्षित करने के अर्थात् अब तक अनुपलब्ध निश्चयसम्यक्त्व गुण को प्राप्त करने के लिये जीव को प्रोत्साहित करता है; अथवा प्राप्त होने के पश्चात् गये हुए सम्यक्त्व को पुनः प्राप्त करने के लिये तद्योग्य साधना प्रबल पुरुषार्थ करने के लिये प्रेरित करता है। जिस प्रकार स्वार्थी मनुष्य अन्य मनुष्यों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये प्रयत्न करते हैं, उसी प्रकार से मुमुक्षु व्यक्ति को अपनी ज्ञानध्यानस्वरूप आन्तरिक साधना को ऐसी आकर्षक अर्थात् विशुद्ध बनानी चाहिए कि जिससे सम्यक्त्व आदि गुण स्वयं आकर्षित होकर चले आयें । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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