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________________ होता है, तत्पश्चात दया आती है," अर्थात् मेरी आत्मा को जिस प्रकार सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय है, उसी प्रकार से विश्व के समस्त जीवों, प्राणियों, भूतों एवं सत्त्वों को सुख प्रिय होता है और दुःख अप्रिय होता हैइस प्रकार का ज्ञान होने से समस्त जीवों के प्रति दया (करुणा) की कोमल . भावना, स्नेहभाव स्वरूप मैत्री प्रकट होती है। "दयाए य सध्वजगजीवपाणभूयसत्ताणं अत्तसमदरिसितं ॥" (दया-मैत्री के द्वारा समस्त विश्व के जीवों, प्राणियों, भूतों एवं सत्त्वों के प्रति आत्म समदर्शित्व की दृष्टि प्राप्त होती है ।) __ इससे उन जीवों को संघट्ट, परिताप, त्रास आदि दुःख देना अथवा भय उत्पन्न करना रुक जाता है, जिससे अनास्रव होता है, हिंसा आदि द्वारों का निरोध होता है और इनसे इन्द्रियों का दमन और कषायों का उपशमन होता है। दम-उपशम के द्वारा शत्र-मित्र पर समभाव उत्पन्न होता है, जिससे राग-द्वषरहितता आती है। रागद्वोषरहितता से कषायरहितता और कषायरहितता के द्वारा “सम्यग्दर्शन" प्राप्त होता है । सम्यक्त्व के द्वारा जीव आदि पदार्थों का परिज्ञान होता है, जिससे सर्वत्र निर्ममत्व-बुद्धि प्राप्त होती है । अज्ञान मोह और मिथ्यात्व का क्षय होने से "विवेक" प्राप्त होता है। विवेक से हेय-उपादेय वस्तु के चिन्तन में ही लक्ष्य रहता है जिससे अहित के त्याग एवं हित के आचरण में अत्यंत उद्यम होता है। इस प्रकार का प्रबल पुरुषार्थ होने से परम पवित्र उत्तम क्षमा आदि दस प्रकार का अहिंसा लक्षणयुक्त धर्म करने और कराने में अत्यन्त अनुराग (प्रेम) उत्पन्न होता है और उस तीव्र धर्मानुराग के द्वारा सर्वोत्तम क्षान्ति, सर्वोत्तम मृदुता, सर्वोत्तम ऋजुता, बाह्य एवं आन्तरिक सर्व संग-परित्याग, सर्वोत्तम बाह्य एवं अभ्यन्त र घोर, वीर, उग्र एवं कठोर तप का आचरण करने में उल्लास उत्पन्न होता है; तथा सत्रह प्रकार के संयम के सम्पूर्ण अनुष्ठान के पालन करने का लक्ष्य बनता है; तथा सर्वोत्तम सत्यभाषित्व, सर्वोत्तम छः काय का हित और सर्वोत्तम अनिहित (बिना छिपाये) बल, वीर्य, पुरुषार्थ, पराक्रम का परितोलन एवं सर्वोत्तम स्वाध्याय एवं ध्यान रूपी जल के द्वारा पाप-कर्म-मल का प्रक्षालन करने वाला सर्वोत्तम धर्म प्राप्त होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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