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४४ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक वर्म सामायिक और देशविरति सामायिक की प्राप्ति होती है। ऐसा अद्भुत प्रभाव है परमात्मा की प्रतिमा के दर्शन का !
(२) धर्म-श्रवण-धर्मोपदेश के श्रवण से संसार का सत्य स्वरूप समझ में आ जाता है, विभाव' की भयंकरता का भान होता है और स्वभाव की सुन्दरता तथा शुभ-कारकता समझ में आती है, तब आत्मा विभाव से हटकर स्वभाव में स्थिर होती जाती है और क्रमशः सम्यक्त्व आदि सामायिक धर्म प्राप्त करके आत्मा की सच्चिदानन्दमयी पूर्णता प्राप्त करती है।
परमात्मा श्री महावीर भगवान की धर्म-देशना का श्रवण करके आनन्द और कामदेव आदि के मोह का विषय-विष उतर गया, अज्ञानान्धकार नष्ट हो गया और सम्यक्त्व आदि सामायिक धर्म की प्राप्ति हो गई तथा अन्त में वे स्वर्ग-अपवर्ग की लक्ष्मी के स्वामी बने ।
(३) पूर्व-अनुभूत क्रिया-अन्य दर्शन के तपस्वियों आदि को अपनी क्रिया करते-करते पूर्व-जन्म में अनुभूत संयम आदि की क्रिया के जातिस्मरण ज्ञान के द्वारा स्मरण होने पर सम्यक्त्व, श्रत और सर्वविरति सामायिक की प्राप्ति होती है-जैसे वल्कलचीरी को उपकरणों की रज झाड़ते हुए पूर्व जन्म के संयम-जीवन में की गई प्रतिलेखन क्रिया का स्मरण हुआ और उसे सर्वविरति धर्म की प्राप्ति हुई।
(४) कर्म-क्षय-किसी पुण्यात्मा को तथाविध प्रबल शुभ निमित्त प्राप्त होने पर अनन्तानुबन्धी कषाय का एवं मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का क्षय अथवा क्षयोपशम होने पर सम्यक्त्व आदि सामायिक धर्म की प्राप्ति होती है । इस विषय में चंडकौशिक सांप का दृष्टान्त आदर्शस्वरूप है ।
एक समय के सुविशुद्ध संयमी महात्मा क्रोधित हाकर कुलपति बनते हैं। वहाँ भी उनकी क्रोधाग्नि अधिक प्रदीप्त होती है, जहाँ से मृत्यु होने के पश्चात्, कषाय के तीव्र परिणाम के कारण वे "चण्डकोशिक" साप बने, जिनकी केवल दाढ़ ही नहीं, परन्तु दृष्टि भी हलाहल विष से परिपूर्ण थीऐसा भयानक सांप ! सांप के अवतार में तो उसके क्रोध की सीमा न रही। केवल मानव ही नहीं परन्तु पशु, पक्षी आदि जो कोई उसके दृष्टि-पथ में आता वे सब उसको विषली दृष्टि के प्रभाव से जल कर भस्म हो जाते। 'परिणामस्वरूप सम्पूर्ण वन वीरान हो गया, जिससे मानव आदि कोई भी प्राणी वहाँ आने का साहस नहीं कर सकता था।
१ विभाव= राग-द्वेष, विषय-कषाय आदि आन्त ।
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