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________________ ४० सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म (३२, ३३, ३४, ३५, ३६) अलंकार द्वार, शयन द्वार, आसन द्वार, स्थान द्वार, और चंक्रमण द्वार-मुकुट, कटक आदि अलंकार धारण किये हों, धारण कर रहे हों अथवा अलंकार रहित हों वे जीव कोई भी सामायिक प्राप्त कर सकते हैं जैसे-भरत चक्रवर्ती, पृथ्वीचन्द्र आदि। इसी तरह शयन, आसन, स्थान तथा चंक्रमण का परित्याग करते हों, तीनों अवस्था में रहे हुए जीव चार में से कोई भी सामायिक प्राप्त कर सकते हैं और पूर्वप्रतिपन्न सर्वत्र होते हैं। सामायिक की प्राप्ति के लिए किसी निश्चित आसन अथवा स्थान आदि का नियम नहीं होता। सोते-सोते, बैठे-बैठे अथवा खड़े-खडे और चलते-चलते भी सामायिक प्राप्त हो सकती है । वस्त्र, पात्र अथवा अलंकार मुक्ति के प्रतिबन्धक नहीं हैं, प्रतिबन्धक तो हैं राग, द्वेष और मोह। इनका नाश होने के पश्चात् संसार का कोई भी तत्व मोक्ष में प्रतिबन्धक होने में समर्थ नहीं है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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