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________________ ३८ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म पहले "वेदना द्वार" में सामायिक की प्राप्ति का विधान किया गया है और यहाँ "वेदना समुद्घात" में निषेध किया गया है जिसका कारण स्पष्ट है कि समुद्घात के समय वेदना, कषाय आदि उत्कट होते हैं और साथ ही साथ जीव के परिणाम भी तद्रप होते हैं जिससे व्याकुलता विशेष प्रमाण में होती है, परिणाम अत्यन्त संक्लिष्ट बने हुए होते हैं। अतः तीव्र संक्लेश में सामायिक समता भाव की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? ___ "केवली समुद्घात सम्बन्धी विशेषता का वर्णन आगे "स्पर्शना द्वार" में किया जायेगा।" (२६) निवेष्टन द्वार (निर्जरा)-(१) द्रव्य से समस्त कर्म-प्रदेशों की अर्थात् सामायिक के आवारक ज्ञानावरणीय, मोहनीय, कर्म-प्रदेशों की निर्जरा करने वाला और (२) भाव से क्रोध आदि कषायों की परिणति को घटाने वाला जीव किसी भी सामायिक को प्राप्त करता है और पूर्व प्रतिपन्न होता है, परन्तु जब अनन्तानुबंधी आदि बांधता हो अथवा कषायों की वृद्धि करता हो तब जीव कोई भी सामायिक प्राप्त नहीं कर सकता। शेष कर्मों के बन्धन के समय प्रतिपद्यमान और पूर्वप्रतिपन्न दोनों हो सकते हैं। आगे "आश्रवकरण द्वार" में इसी बात को अधिक स्पष्टतापूर्वक बताया जाता है कि जब जीव सम्यक्त्व आदि सामायिक प्राप्त करता है, तब शेष कर्मों का बन्ध शुरू होते हुए भी सामायिक के प्रतिबन्धक कर्मों की निर्जरा अवश्य करता होता है, परन्तु पूर्वप्रतिपन्न अर्थात् सामायिक प्राप्त करने के पश्चात् उक्त जीव कर्मों का सर्जन (बन्ध) और विसर्जन (निर्जरा) दोनों साथ-साथ करता रहता है। क्रोध आदि कषायों की उत्कटता को सर्वथा क्षीण कर देने से और इन्द्रियों के विषय-वासना की तीब्र आसक्ति को तोड़ डालने से सामायिक की प्राप्ति होती है। "विषय-विरक्ति एवं कषाय-परित्याग" के द्वारा ज्यों-ज्यों मिथ्यात्व आदि कर्मों का क्षय होता है, त्यों त्यों तात्विक सामायिक-समताभाव की मात्रा में वृद्धि होती जाती है। (३०) उद्वर्तना द्वार-चारों गति में विद्यमान एवं एक से दूसरी गति में गमनागमन करने वाले जीव कहाँ-कहाँ सामायिक के प्रतिपद्यमान अथवा पूर्वप्रतिपन्न होते हैं उसका विचार यहां किया जाता है । (क) नरक गति स्थित जीव प्रथम दो सामायिक प्राप्त कर सकता है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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