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________________ ३४ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म उपयोग आत्मा का स्वभाव होने से गुणस्थानक की प्रथम भूमिका से प्रारम्भ होकर चौदहवें गुणस्थानक तक उसकी विशुद्धि के प्रकर्ष में वृद्धि होती ही रहती है। सामायिक की प्राप्ति के पश्चात् उपयोग विशुद्ध, विशुद्धतर होता जाता है। उपयोग एवं सामायिक परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं, सहायक हैं । समता से उपयोग विशुद्ध बनता है और उपयोग की विशुद्धता से समता (सामायिक) विशुद्ध बनती है। कहा भी है कि समता भाव के बिना आत्मध्यान सम्भव नहीं है और ध्यान के बिना निष्कम्प समता प्रकट होना असम्भव है। अतः ध्यान का कारण समता है और समता का कारण ध्यान है। यहाँ ज्ञान की एकाग्रता स्वरूप (उपयोग स्वरूप) ध्यान अपेक्षित है। जिनागमों में केवल "चित्त-निरोध" को ही नहीं, परन्तु तीनों योगों से ध्यान माना है। मन, वचन अथवा काया के अतिशय दृढ़ प्रयत्न पूर्वक किया गया व्यापार भी ध्यान ही है। "ध्य" धातु के अनेक अर्थ हैं, उनमें से “करण-निरोध" अर्थ लेकर केवली के "शैलेशीकरण" की प्रक्रिया के समय किये जाने वाले "कायनिरोध" रूप प्रयत्न विशेष को "ध्यान" माना गया है। छद्मस्थ को “चित्त-निरोध" स्वरूप ध्यान होता है। भवस्थ केवली को चिन्तन के अभाव में भी दो प्रकार का शुक्ल ध्यान होता है, जिसके होने के अनेक कारण भी हैं, जैसे जीव-उपयोग का ऐसा स्वभाव । पूर्व-विहित ध्यान के संस्कार । कर्म की निर्जरा। एक शब्द के अनेक अर्थ । जिस प्रकार छद्मस्थ को धर्म-ध्यान होता है, उसी प्रकार से केवली को भी अन्तिम दो शुक्ल ध्यान होते हैं। जब केवली "योग-निरोध" करते हैं, तब उन्हें दो प्रकार के ध्यान होते हैं ।" यह आगम पाठ भी हेतु है। सामायिक एवं उपयोग का सम्बन्ध-आगम ग्रन्थों में "सामायिक" १ न साम्येन विना ध्यानं न ध्यानेन विना च तत् । निष्कंपं जायते तस्मात् द्वयमन्योन्यकारणम् ॥ १॥ -योगशास्त्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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