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________________ सामायिक की विशालता ३३ उपयोग के ज्ञान स्वरूप एवं दर्शन स्वरूप दो भेद बताने के पीछे मुख्य कारण यही है कि लब्धि-शक्ति के रूप में ये दोनों (ज्ञान-दर्शन) सहचारी होते हुए भी उन दोनों का उपयोग' साथ-साथ नहीं होता। 'उपयोग' क्रमवर्ती है । एक साथ अनेक क्रियाएँ करने पर भी जीव का उपयोग एक समय में एक क्रिया में ही होता है। "विशेषावश्यक भाष्य" में स्पष्टतया कहा है कि जिस समय उपयोगमय जीव (केवल उपयोग से निर्वृत) इन्द्रिय अथवा मन से जिस जिस विषय में सम्मिलित होता है, उस समय उसमें ही उपयुक्त बना हुआ वह वस्तु के उपयोग वाला होता है, परन्तु उस समय उसे अन्य पदार्थ का बोध नहीं होता । विशेष स्पष्टीकरण करते हुए भाष्यकार महर्षि कहते हैं कि जिस समय जीव किसी एक क्रिया में विवक्षित अर्थात् पदार्थ के चिन्तन में उपयुक्त बनता है, तब वह अपनी समग्र, सम्पूर्ण ज्ञान-शक्तिपूर्वक उसमें तन्मय हो जाता है। अर्थात् समस्त आत्म-प्रदेशों के द्वारा वह एक ही पदार्थ के उपयोग में योजित हो जाता है। तत्पश्चात् उसके पास अन्य कोई भी ज्ञान-शक्ति शेष नहीं रहती, कि जिसके द्वारा वह उसी समय अन्य किसी पदार्थ में अथवा क्रिया में 'उपयोग' रख सके। उपयोग की इस स्पष्ट व्याख्या की समापत्ति के लक्षणों के साथ तुलना करने पर उन दोनों में कोई अर्थ-भेद प्रतीत नहीं होता, क्योंकि समापत्ति में जिस प्रकार ध्याता के ध्यान की ध्येयाकार में परिणति होती है, उसी प्रकार से उपयोग में भी ज्ञाता के ज्ञान की ज्ञयाकार में परिणति होती है, तो ही उसे उस पदार्थ का स्पष्ट बोध होता है, अन्यथा नहीं। चारों सामायिक की प्राप्ति के समय सामायिकवान् व्यक्ति का साकार अथवा निराकार उपयोग अवश्य होता है। इस कारण ही सामायिक में 'समाधि अथवा समापत्ति' आदि योगों का अन्तर्भाव हो चुका है। साधू की दिनचर्या में भी प्रतिक्रमण एवं प्रतिलेखन के पश्चात् सज्झाय (शास्त्राध्ययन) एवं उपयोग करने का जो विधान है. उसमें 'उपयोग' शब्द अत्यन्त ही रहस्यमय है, जिससे 'योगाभ्यास' आदि का ज्ञान होता है । कहा भी हैं कि __ 'गुरु-विनय, स्वाध्याय, योगाभ्यास, परार्थकरण और इतिकर्तव्यता साधु की सच्चेष्टाएँ हैं।' -(षोडशक) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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