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सामायिक की विशालता २६.
(३) 'तल्लेश्य ' - वही आवश्यक कि ध्यान आदि में साधक तेजोलेश्या युक्त ( शुभ परिणामी ) होता है ।
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( ४ ) ' तदध्यवसित' – वही आबश्यक कि ध्यान आदि में साधक क्रिया सम्पादन करने के उत्साह अथवा निश्चय से युक्त होता है ।
(५) ' तत्तीव्राध्यवसान' - वही आवश्यक कि ध्यान आदि में साधक आरम्भ से ही प्रतिक्षण उन्नतिशील विशिष्ट प्रकार का प्रयत्न करता है ।
(६) 'तदर्थोपयुक्त' - वही आवश्यक कि ध्यान आदि में साधक पदार्थ के अर्थ में अत्यन्त उपयोग वाला ( प्रशस्ततर संवेग से विशुद्ध होकर प्रत्येक सूत्र एवं क्रिया के अर्थ में उपयुक्त) होता है ।
(७) 'तदर्पितकरण' - वही आवश्यक कि ध्येय पदार्थ के अर्थ में साधक के रजोहरण आदि उपकरण और मन, वचन, काया आदि योग यथायोग्य अर्पित - नियुक्त हुए होते हैं ।
(८) ' तद्भावभावित' - वही आवश्यक कि ध्येय पदार्थ के अर्थ की भावना ( प्रवाह युक्त पूर्व संस्कारों की धारा ) से साधक तादात्म्य होता है । ( 8 ) ' प्रस्तुत क्रिया के अतिरिक्त अन्य किसी क्रिया में साधक अपना मन जाने नहीं देता ।'
उपर्युक्त समस्त विशेषण उपयोग का प्रकर्ष बताने वाले अर्थात् उपयोग की विशेष वृद्धि होती विशुद्धि के ही द्योतक होने से एकार्थवाची हैं ।
आवश्यक अथवा ध्यान करते समय जब चित्त की एकाग्रता में वृद्धि होने लगती है, तब सर्वप्रथम साधक का ध्येय विषय में सामान्य उपयोग होता है, तत्पश्चात् उक्त उपयोग विशिष्ट कोटि का हो जाता है, फिर शुभ परिणाम रूप लेश्या उत्पन्न होती है (अर्थात् तेजो, पद्म अथवा शुक्ल लेश्या के परिणाम होते हैं) चतुर्थ भूमिका में ध्यान आदि क्रिया की पूर्णाहुति करने के लिये अपूर्व उल्लास उत्पन्न होता है और आत्मविश्वास जागृत होता है कि - प्रारम्भ किया हुआ यह ध्यान अवश्य पूर्ण होगा ।' तत्पश्चात् क्रिया के प्रारम्भ से हो वृद्धि की ओर बढ़ने वाले अध्यवसायों की उन्नति होती है, जिससे ध्येय के अर्थ में विशुद्ध संवेगयुक्त अपूर्व एकाग्रता उत्पन्न होती है । फिर अर्थोपयोग के फलस्वरूप मन' वचन और काया इन तीनों के ध्येय के स्वरूप में तद्रूप हो जाते हैं, जिससे साधक साध्य के साथ अंगांगी भाव से तादात्म्य हो जाता है । फिर तो साधक का मन ध्येय के चिन्तन' के अतिरिक्त अन्यत्र जाने के लिये प्रेरित होता ही नहीं ।
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