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२८ सर्वज्ञ कथित: परम सामायिक धर्म
उपयोग वाले ही होते हैं । जीव का शुभ उपयोग महान पुण्योदय से होता है ।
निर्ग्रन्थ सद्गुरु आदि के शुभ संयोग से उनका धर्मोपदेश श्रवण करने से तत्व श्रद्धा उत्पन्न हो, संसार की विषमता एवं असारता समझ में आये, उनके प्रति तीव्र राग-द्वेष क्षीण हो जाये और हिंसा आदि पाप प्रवृत्तियों का परित्याग करके सद् अनुष्ठानों का सेवन करता है तब जीव का अशुभ उपयोग मिट कर शुभ बनता है ।
तत्पश्चात् ज्यों-ज्यों आध्यात्मिक विकास में वृद्धि होती जाती है, त्यों-त्यों यह उपयोग शुभ, शुभतर होते-होते क्रमशः सर्वथा विकल्प रहित हो जाता है और इस अवस्था में हो साधक व्यक्ति अपने शुद्ध स्वभाव का आंशिक अनुभव करता है ।
'उपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय अविकल्प- निराकार उपयोग में वर्तमान आत्मा को सर्व प्रथम स्वशुद्ध स्वभाब की अनुभूति होती है ।' - यह आगम-पंक्ति अत्यन्त ही मननीय है । उपयोग का कोई गुप्त रहस्य इसमें लुप्त प्रतीत होता है ।
इस उपशम सम्यक्त्व अवस्था में 'निराकार उपयोग' हाता है अर्थात् अचक्षुदर्शनात्मक मन का अविकल्प उपयोग होता है ।
मन की निर्विकल्प अवस्था तक पहुंचने के लिये विभिन्न शास्त्रों में यम-नियम आदि तथा भक्तियोग, राजयोग और ज्ञानयोग आदि अनेक प्रक्रिया बताई गई है ।
'साकार एवं निराकार उपयोग में ही समस्त प्रकार की लब्धियाँ एवं सिद्धियाँ प्रकट होती है' - इस शास्त्रीय विधान के द्वारा 'शुद्ध उपयोग' विशिष्ट ध्यान एवं महान् समाधि स्वरूप सिद्ध होता है ।
उपयोग विशिष्टता एवं तारतम्यता - श्री अनुयोग द्वार सूत्र में लोकोत्तरभाव आवश्यक के स्वरूप का वर्णन करते हुए शास्त्रकार महर्षि ने सामायिक आदि षड् आवश्यक की प्रक्रिया में प्रवृत्त साधक के उपयोग ( ध्यान ) में कैसी विशिष्टता और तारतम्यता होती है उसे स्पष्ट किया है जो निम्नलिखित है
(१) 'तच्चित्त' - वही आवश्यक कि ध्यान आदि में साधक सामान्य उपयोग वाला होता है ।
(२) तन्मन' -- वही आवश्यक कि ध्यान आदि में साधक विशेष उपयोग वाला होता है ।
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