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१६ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म
विषय-वासना के प्रति उदासीनता रखना, वैराग्य जगाना ।
आत्मा के पूर्णानन्दमय स्वरूप का अनुभव करने के लिये अत्यन्त उत्कण्ठा रखना।
दुःखी जीवों के कष्ट निवारण करने के प्रयास करना। जिन-वचनों के प्रति दृढ़ श्रद्धा रखना।
ये समस्त गुण आने पर साधक में सम्यक्त्व सामायिक प्रकट होती है और यदि ये पूर्व से ही प्राप्त हों तो वह अधिक निर्मल बनती है।
श्रत सामायिक सम्यक्त्व सामायिक की सहचारिणी है। सम्यक्त्व सामायिक की प्राप्ति होने पर श्रत सामायिक स्वयमेव प्राप्त हो जाती है। ये दोनों सामायिक परस्पर सहचारिणी हैं, सहायक हैं।
सम्यक्त्व सामायिक को प्राप्ति कोई सरल बात नहीं है। 'मैं देह नहीं, आत्मा है" इस भेदज्ञान के समक्ष दीवार की तरह अडिग खड़ा तीव्र दर्शन-मोहनीय कर्म दूर न हो, तब तक जीव सम्यक्त्व की पूर्व भूमिका का स्पर्श तक नहीं कर सकता।
सम्यक्त्व की पूर्व भूमिका है-अपुनर्बन्धक अवस्था। जीव इस अवस्था तक तब ही पहुंच सकता है, जब वह पुनः कदापि मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध नहीं करने की स्थिति तक पहुँच गया होता है।
अपुनर्बन्धक अवस्था को पहुंचे हुए जीवों की परिणति-प्रवृत्ति कैसी होती है वह निम्नलिखित लक्षणों से पहचानी जा सकती है --
तीव्र क्रूरता से हिंसा आदि पाप कार्य न करे। तथाकथित सांसारिक सुखों के प्रति प्रगाढ़ आसक्ति न करे। धर्म आदि समस्त कार्यों में उचित मर्यादा का उल्लंघन न करे।
'योगबिन्दु' ग्रन्थ में अपुनबंन्धक के अन्य लक्षण भी बताये गये हैं जैसे
तुच्छ, संकुचित वृत्ति नहीं रखता हो । भिक्षा माँगने वाला (याञ्चाशील) न हो। दीनता नहीं रखता हो। धूर्तता नहीं करता हो। निरर्थक प्रवृत्तियां न करता हो। कालज्ञ हो, समय पहचान कर व्यवहार करने वाला हो, आदि ।
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