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________________ सामायिक का स्वरूप ११ जिस व्यक्ति की आत्मा संयम, नियम और तप की आराधना में ही सदा संलग्न हो; चलते-फिरते अथवा स्थिर (त्रस अथवा स्थावर) समस्त प्राणियों के प्रति सद्भाव वाली अर्थात् समस्त जीवों को आत्मवत् समान दृष्टि से देखने वाली हो, वही व्यक्ति इस 'जिन प्रणोत' सामायिक धम का सच्चा अधिकारी है ।' ___ सावद्य-दुष्ट मन, वचन, काया रूपी योग की रक्षा के लिये सामायिक अभेद्य कवच है । इसके द्वारा राग-द्वेष की दुष्ट वृत्तियों पर नियन्त्रण रहता है और चित्त की स्थिरता एवं समता में वृद्धि होती जाती है। सर्वज्ञ-उपदिष्ट यह परम पवित्र एवं परिपूर्ण सामायिक-धर्म गृहस्थधर्म की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ एवं महान् फलदायी है। आत्म-कल्याण-कामी बुद्धिमान व्यक्तियों को इस लोक और परलोक में आत्मा के परमोच्च विकास-साधक इस सामायिक धर्म को अवश्य स्वीकार करना चाहिये। मन, वचन और काया की स्थिरता अथवा शुद्धता पूर्वक होती तप, नियम और संयम की आराधना से आत्मा में आता कर्म-बन्ध का प्रवाह रुक जाता है, तथा पूर्व-कृत दुष्ट कर्मों का क्षय होता है और क्रमशः परम पद प्राप्त होता है। सम्पूर्ण सामायिक स्वीकार करने में असमर्थ श्रावक भी दो घड़ी की सामायिक के द्वारा अशुभ योगों से निवृत्त होकर अपूर्व कर्म-क्षय कर सकते हैं । सामायिक में स्थिर श्रावक भी उतने समय के लिये साधु-तुल्य माना जाता है। ___ सामायिक करना अर्थात् मध्यस्थ भाव में रहना, राग-द्वेष के मध्य रहना-अर्थात दोनों में से किसी का भी आत्मा के साथ स्पर्श नहीं होने देना, परभाव से हट कर स्वभाव में स्थिर होना । सामायिक आत्म-स्वभाव में तन्मयता लाने की एक अद्भुत, दिव्य कला है । संयम, नियम एवं तप के सतत अभ्यास से सामायिक को आत्मसात् किया जा सकता है। १ जस्स सामाणिओ अप्पा संजमे नियमे तवे । तस्स सामाइयं होइ इइ केवलिभासियं ।। जो समो सवभूएसु तसेसु थावरेसु य । तस्स सामाइयं होइ इई केवलिभासियं ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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