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२. सामायिक का स्वरूप
सामायिक धर्म की व्यापकता एवं प्रभाव के सम्बन्ध में यह अल्प विचार किया गया। अब चतुर्दश पूर्वधर श्री भद्रबाहु स्वामीकृत 'आवश्यक नियुक्ति' एवं श्री जिनभद्र क्षमाश्रमण द्वारा रचित 'विशेषावश्यक भाष्य' के आधार पर सामायिक क्या है ? उसके कितने प्रकार हैं ? सामायिक किसे कहते हैं ? यह किस प्रकार प्राप्त होती है ? कितने समय ठहरती है और उसका फल क्या है ? आदि अनेक बातों पर हम विशद चिन्तन करेंगे।
छः आवश्यकों में 'सामायिक' का प्रथम स्थान है। शेष पाँचों आवश्यक सामायिक के ही भेद हैं, अंग हैं अर्थात् वे सामायिक को ही पूष्ट करने वाले हैं। सामायिक अर्थात समता की साधना जितनी अधिक पुष्ट होगी उतने ही शेष पांचों आवश्यक अधिकाधिक आत्मसात् होकर कर्मनिर्जरा में अनन्य सहायक होते हैं। इस प्रकार सामायिक अर्थात् समता भाव युक्त अन्य पांच आवश्यकों की आराधना परमपद प्राप्त कराती है। (१) आवश्यक के पर्यायवाची नाम
पर्यायवाची शब्दों के ज्ञान से मूलभूत पदार्थ को समझने में अत्यन्त सरलता होती है, अर्थ भी अधिक स्पष्ट होता है। सामायिक की सर्वगुणसम्पन्नता एवं विशिष्टता का बोध होने के लिए पर्यायवाची णब्दों का ज्ञान उपयोगी है।
आवश्यक, अवश्य-करणीय, ध्र व, निग्रह, विशुद्ध, अध्ययन षट्क, वर्ग, न्याय, आराधना और मार्ग--ये दसों शब्द सामान्यतः एकार्थक हैं; फिर भी प्रत्येक शब्द किसी न किसी विशिष्ट गुणधर्म का वाचक है । अतः उपयुक्त पर्यायवाची शब्द अपना विशिष्ट अर्थ बताकर मूलभूत पदार्थ सामायिक की विशिष्टता को ही अधिक स्पष्ट करते हैं, जो इस प्रकार है : (१) आवश्यक -चतुर्विध संघ के दिन एवं रात्रि में जो अवश्य
करने योग्य हैं।
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