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________________ समापत्ति और समाधि १३६ (स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग के बिना) तन्मयता नहीं आती और तन्मयता के बिना "समापत्ति" नहीं हो सकती । कहा है कि योगस्य हेतुर्मनसः समाधिः, परं निदानं तपसश्च योगः । तपश्च मूलं शिवशर्मवल्लया, मनः समाधि भज तत् कथंचित् ।। (अध्यात्म कल्पद्रम) मन की समाधि (निर्मलता) संयम (योग) का हेतु है और संयम (योग) तप का हेतु है, और तप मोक्ष का हेतु है। दुष्कृतगर्दा आदि के द्वारा समापत्ति-- (१) दुष्कृतगर्हा--हिंसा आदि पापों की गर्हा-निन्दा बहिरात्म-भाव को दूर करके चित्त को निर्मल करती है। (२) सुकृत-अनुमोदना--सुकृत की अनुमोदना अन्तरात्म-स्वरूप स्थिरता लाती है। (३) चतुःशरणगमन- अरिहन्तादि चारों की शरण ग्रहण करने से परमात्मा के साथ तन्मयता होने पर “समापत्ति" सिद्ध होती है । तीन प्रकार की भक्ति के द्वारा समापत्ति (१) स्वामी-सेवक-भाव से परमात्मा की भक्ति करने से बहिरात्मभाव नष्ट होता है और चित्त निर्मल बनता है। (२) अंश-आंशिक भाव के द्वारा (मेरे सम्यग्दर्शन आदि गुण प्रभु की पूर्ण प्रभुता का एक अंश ही है) परमात्म-भक्ति से अन्तरात्मस्वरूप में स्थिरता आती है। (३) पराभक्ति-स्वआत्मा को परमात्मा तुल्य मानकर उस रूप में ध्यान करने से परमात्मा के साथ तन्मयता (एकता) होती है, उसे आत्मापण अथा समापत्ति कहा जाता है । "बहिरातम तजी अन्तर आतमा, रूप थई थिर भाव सुज्ञानी । परमातम - आतम भाववं, आतम अरपण दाव सुज्ञानी । आतम अरपण वस्तु विचारता, भ्रम टले मति दोष सुज्ञानी । परम पदारथ सम्पद संपजे, आनन्दघन रस पोष सुज्ञानी । (सुमतिजिन स्तवन) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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