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________________ १३८ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म असंयम (इन्द्रिय, कषाय, अव्रत एवं अशुभयोग) की निवृत्ति से संयम का पालन होता है । ज्यों,ज्यों संयम विशुद्ध बनता है, त्यों-त्यों आत्मस्वभाव विशुद्ध होता जाता है। सम्पूर्ण शुद्ध संयम के पालन से सम्पूर्ण (आत्म) विशुद्धि होती है। इस प्रकार संयम पालन करके स्व आत्मा के साथ एकता (तात्विक सम्बन्ध) स्थापित होती है । तप-- बाह्य एवं आभ्यन्तर तप-यह आत्मा एवं परमात्मा के मध्य का भेदभाव दूर करके अभेद सम्बन्ध स्थापित करता है । दोनों के मध्य भेद कर्म का है, और ज्यों-ज्यों तप के द्वारा कर्मों का क्षय होता है त्यों-त्यों आत्मा विशुद्ध बनती है, और कर्म से जितना भेद टूटता है, उतना परमात्मा के साथ अभेद सिद्ध होता है। अनशन आदि बाह्य तप के द्वारा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावच्च एवं शास्त्र के पठन-पाठन में वृत्तियें एकाग्र हो जाती हैं, जिससे क्रमशः ध्यान एवं कायोत्सर्ग में भी अपूर्व स्थिरता आती है । ध्यान एवं कायोत्सर्ग के द्वारा परमात्म-स्वरूप में लीन बनी आत्मा क्रमशः चार घाती कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त करती है, और अन्त में जब शैलेशीकरण के द्वारा चार अघाती कर्मों का भी क्षय करके सिद्धिपद प्राप्त करती है, तब आत्मा समस्त भेदों का भ्रमजाल तोड़कर स्वयं परमात्मा बनती है, तब उसका शाश्वत समागम प्राप्त करती है। __ इस प्रकार अहिंसा पुण्यानुबन्धी पुण्य की पुष्टि करती है। “संयम" नवीन कर्मों को रोककर क्रमशः पूर्ण संवर भाव उत्पन्न करता है और तप "निर्जरा" तत्त्व स्वरूप है; अंश-अंश करके कर्मों का क्षय करके क्रमशः सम्पूर्ण कर्म-क्षय-स्वरूप “मोक्ष" प्राप्त कराता है, आत्मा के पूर्ण शुद्ध स्वरूप को प्रकट करता है। इस प्रकार अहिंसा, संयम और तप स्वरूप धर्म ही परम मंगल है। जिस व्यक्ति के हृदय में यह धर्म निवास करता है उसे देव, दानव, इन्द्र और चक्रवर्ती भी नतमस्तक होकर नमस्कार करते हैं। अहिंसा से निर्मलता, संयम से स्थिरता एवं तप से तन्मयता आने पर परमात्म समापत्ति सिद्ध होती है, अर्थात् आत्मा में परमात्मा का निर्मल प्रतिबिम्ब पड़ता है। हिंसा का परित्याग किये बिना चित्त निर्मल नहीं बनता और संयम (इन्द्रियदमन-कषाय त्याग) के बिना स्थिरता नहीं आती तथा तप के बिना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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