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________________ १३६ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म समस्त कर्मों के क्षयपर्यन्त को (अन्त को) प्राप्त योग को ही अध्यात्म-योग के विशारद “मुक्ति" कहते हैं। समाधि के इस लक्षण से योग एवं समाधि को एकता स्पष्ट समझी जा सकती है, तथा वे-वे मिथ्यात्व आदि कर्म-क्षय (क्षयोपशम अथवा उपशम) के लिए प्रवृत्त ध्यान आदि योग भी “समाधि विशेष" है। अतः अवंचक योग, चरमयथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण तथा सम्यग्दर्शन आदि एवं समस्त प्रकार की समापत्ति, गुण श्रेणी तथा सम्यम् दृष्टि आदि चार से चौदह गुणस्थानकों आदि को भी अपेक्षा से अव्यक्त अथवा व्यक्त समाधि-विशेष (भी) कहा जा सकता है। अन्य दर्शनों में बताई गई संप्रज्ञात समाधि (समापत्ति) असंप्रज्ञात सपाधि, धर्म मेघ समाधि, अमृतात्मा, भवशकशिवोध्य, सत्वानन्द समाधि, विजय समाधि और आनन्द समाधि आदि समस्त प्रकार की समाधियों का उपर्युक्त समाधियों में समावेश हो चुका है। (योगबिन्दु श्लोक ४१६, ४२१, ४२२) तथा स्थितप्रज्ञ की सहज स्थिति का भी "चारित्र समाधि" में समावेश किया जा सकता है, अर्थात् ऐसी कोई समाधि, प्रज्ञा अथवा योग विशेष नहीं है जिसका उपर्युक्त समाधि में अन्तर्भाव न हुआ हो। ___ अतः समस्त प्रकार के अध्यात्म आदि योगों का भी समाधि में ही अन्तर्भाव हो चुका होने से समग्र मोक्ष-मार्ग की साधना समाधि में समाविष्ट है, यह स्पष्ट समझा जा सकता है । __ “समाधि और समापत्ति की कुछ एकता है।" ___ मनुष्य जब तीनों योगों को एकाग्रता करता है तब ही वह किसी भी नवीन वस्तु की खोज कर सकता है अथवा अपूर्व आध्यात्मिक भूमिका में प्रवेश कर सकता है। समापत्ति अर्थात् मन, वचन, काया की निर्मलता, स्थिरता, एकाग्रता एवं तन्मयता होना, ध्येय पदार्थ में चित्त को एकाकार करना, जिससे अपना स्वरूप भी ध्येय के रूप में ज्ञात हो। जब-जब आत्मा प्रबल पुरुषार्थ के द्वारा आत्मवीर्य प्रकट करके कठिन-मिथ्यात्व आदि कर्म-पुंजों का क्षय करने के लिये तत्पर होती है, तब-तब उसे मन, वाणी और शरीर को अत्यन्त एकाग्र करना पड़ता है । उसे ही “समपत्ति" कहते हैं, जिसके फलस्वरूप आत्मा अमुक समय तक सहज स्वाभाविक अनुपम समता-सुख का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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