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ममापत्ति और समाधि १३५ क्षायोपशमिक ज्ञान के चार प्रकार हैं। सम्यग्दर्शन के साथ चार, तीन अथवा दो ज्ञान को उपस्थिति में एक साधक के आधार पर भी विशुद्धि के तारतम्य से अनेक प्रकार की समाधियाँ घटित होती हैं, तब अनेक साधकों की अपेक्षा से तो समाधि के अनेक भेद होने की बात तो स्पष्ट समझी जा सकती है।
(२) क्षायिक (केवल) ज्ञान समाधि- एक अथवा अनेक व्यक्तियों की अपेक्षा से भी एक हो प्रकार की होती है, क्योंकि वह पूर्णतः शुद्ध है । पूर्ण शुद्धता के भेद नहीं होते।
(३) चारित्रसमाधि - मुख्यतः ये तीन प्रकार की होती है(१) क्षयोपशम-चारित्र समाधि, (२) उपशम चारित्र समाधि, (३) क्षायिक चारित्र समाधि । चारित्रमोहनीय कर्म के क्षयोपशम, उपशम तथा क्षय से ये तीनों उत्पन्न होती हैं। देशविरति चारित्र-समाधि, सर्वविरति चारित्र-समाधि और अप्रमत्त आदि गुण-स्थान में उत्पन्न होने वाली विशुद्ध-विशुद्धतर समाधि के अनेक भेदों का समावेश उपर्युक्त तीन प्रकार की चारित्रसमाधियों में हो चुका है । विस्तार से तो चारित्र (संयम) के असंख्य अध्य. वसाय-स्थान होने से चारित्र-समाधि के असंख्य भेद हो सकते हैं।
अन्त में समग्र कर्मों का क्षय भी शैलेशी की अन्तिम चारित्र समाधि से ही होता है । अतः योग-बिन्दु में स्पष्ट कहा है
शैलेशीसंज्ञिताश्चेह - समाधिरुपजायते। ___ कृत्स्नकर्मक्षयतोऽयं - गोयते वृत्ति-संक्षयः ।। ४६५ ।।
“शैलेशीकरण रूप समाधि से समग्र कर्मों का क्षय होता है, उस "शैलेशी" नामक समाधि को ही "वृत्तिसंक्षय" योग कहते हैं और वह समस्त योगों का राजा है।" ममाधि का स्पष्ट लक्षण
तथा तथा-क्रियाविष्टः समाधिरभिधीयते ।
निष्ठाप्राप्तस्तु योगज्ञ मुक्तिरेष उदाहृतः ।। ४६६ ।। वृत्ति-तथा तथा, तेन तेन प्रकारेण, क्रिया विस्टस्तत्तत्कर्म-क्षपणाय प्रवृत्तोयोग समाधिरभिधीयते--उस-उस प्रकार से-उस-उस कर्म का क्षय करने के लिए प्रवृत्त योग ही “समाधि" है ।
निष्ठाप्राप्तस्तु-कर्मक्षमपणपर्यन्त प्रान्तः पुनः योगज्ञ:- अध्यात्मादियोग-विशारदै. मुक्तिरेष योग उदाहृतः-निरूपितः ।
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