SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६८ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म - (३) सम्म सामायिक का स्वरूप-सम्यक् परिणाम स्वरूप इस सामायिक में सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र का परस्पर सम्मिलन होता है। दूध में शक्कर की भांति आत्मा में रत्नत्रयी का एकीकरण होना ही "सम मामायिक" है। उपर्युक्त साम एवं सम परिणाम रूप सामायिक के सतत अभ्यास से ही इस प्रकार की "स्वभाव तन्मयता" प्रकट होती है, जिसे चारित्र समाधि अथवा प्रशान्तवाहिता आदि नामों से सम्बोधित किया जा सकता है। इस सामायिक में शान्ति (समता) का अस्खलित प्रवाह होने लगता है, चन्दन की सुगन्ध की तरह समता आत्मसात् हो जाती है । कहा भी है कि "जिस मुनि को आत्मा के शुद्ध स्वरूप का दशन और विशेष ज्ञान हुआ हो अर्थात् “मेरी आत्मा भी अनन्त ज्ञान आदि गुणपर्यायों से युक्त है।" इस प्रकार की श्रद्धा और ज्ञान प्राप्त होने के साथ आत्म-स्वभाव में स्थिरता, रमणता, तन्मयता प्राप्त हुई हो उसे ही आत्मिक आनन्द की अनुभूति होती है और उसे ही "सम्म सामायिक" प्राप्त हुई होती है।" योग की सातवीं और आठवीं दृष्टि में प्राप्त होने वाले समस्त गुण इस सामायिक की भूमिका को अधिक स्पष्ट रूप से समझाने में सहायक होते हैं । ध्यान की प्रीति, प्रतिपत्ति, शमयुक्तता, समाधि-निष्ठता, असंग अनुष्ठान, आसंग आदि दोषों का अभाव, चन्दन-गन्ध सदृश सात्मीकृत प्रवृत्ति, निरतिचारिता आदि सद्गुण भी इस सामायिक के धारक साधक को प्राप्त हो चुके होते हैं । ज्ञान-सुधा के सागर तुल्य, परब्रह्म, शुद्ध ज्योतिस्वरूप, आत्मस्वभाव में लीन मुनि को अन्य समस्त रूप-रस आदि पौद्गलिक विषयों की प्रवृत्ति विष के समान भयंकर एवं अनर्थकारी प्रतीत होती है । एक बार अन्तरंग सुख का रसास्वादन करने के पश्चात् बाह्य सुख, समृद्धि, सिद्धि एवं ख्याति की प्रवृत्ति के प्रति उदासीनता हो जाती है। विश्व के समस्त चराचर पदार्थों का स्याद्वाद दृष्टि से अवलोकन करने वाला आत्म-स्वभाव में मग्न मुनि किसी पदार्थ का कर्ता नहीं होता, केवल उसकी साक्षी होती है, अर्थात् तटस्थता से वह समस्त तत्वों का ज्ञाता होता है, परन्तु वह कर्ता होने का अभिमान नहीं करता। “विश्व Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy