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१४ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म है, दूसरों के सुख-दुःखों को वह अपने सुख-दुःख समझकर किसी को भी तनिक भी पीड़ा हो जाये वैसी वह अपने मन, वचन, काया से कोई प्रवृत्ति नहीं करता, अन्य व्यक्तियों से वैसी कोई प्रवृत्ति नहीं कराता और यदि कोई वैमी प्रवृत्ति करता हो तो उसे अनुमोदन नहीं देता।
इस प्रकार समस्त जीवों के साथ आत्मवत् प्रदर्शन का नाम "सम" है। ऐसे परिणाम आत्मा में प्रकट कराने को "सामायिक" कहते हैं। इस सामायिक का धारक मुनि समस्त धन-धान्य आदि अचेतन पदार्थों के प्रति भी उदासीन होता है, तथा समस्त नयों के प्रति मध्यस्थ होता है।
प्रत्येक नय स्व-स्व विषय का प्रतिपादन करने में तत्पर होता है जिससे वह सत्य होता है और अन्य नयों की मान्यता से तुलना करने में असत्य सिद्ध होता है। ऐसे परस्पर विरोधी नयों के विषय में भी जो निष्पक्ष होता है, वह महामुनि "मध्यस्थ" कहलाता है।
माध्यस्थ का स्वरूप - मिथ्या-मिथ्या तर्क-वितर्क करने से चित्त अधिक चंचल होता है, तुच्छ कदाग्रही व्यक्ति असत्य को सत्य सिद्ध करने के लिए अनेक कुयुक्तियों का प्रयोग करता है; स्वयं सत्य की ज्योति से वंचित रहता है और भोले मनुष्यों को भी भ्रमित करने का पाप सिर पर लेता है, परन्तु मध्यस्थ व्यक्ति का चित्त स्थिर होता है। वह सदा युक्ति का ही अनुकरण करता है अर्थात वह यूक्ति-संगत तर्क ही स्वीकार करता है। तत्व-विषय में वह कदापि दुराग्रह नहीं करता।
जिस प्रकार नदियों के समस्त भिन्न-भिन्न मार्ग अन्त में सागर में विलीन हो जाते हैं, तब उनमें किसी प्रकार की भिन्नता नहीं रहती, कोई भेद नहीं रहता, उसी प्रकार से अपुनर्बन्धक, सम्यग्दृष्टि, देशविरति अथवा सर्वविरति (जिनकल्पी अथवा स्थविरकल्पी) आदि मध्यस्थ पुरुषों के भूमिका-भेद से भिन्न-भिन्न प्रतीत होने वाले मार्ग भी परब्रह्म (केवलज्ञान) को प्राप्त कराने में सहायक होते हैं, तब वे एक हो जाते हैं, इस कारण मध्यस्थ मुनि को समस्त मुक्ति साधक मार्गों के प्रति समभाव होता है ।
मध्यस्थ मुनि राग-वश अपने मत के शास्त्र स्वीकार नहीं करता अथवा द्वष-वश वह अन्य मत के शास्त्रों का बहिष्कार नहीं करता, परन्तु मध्यस्थ भाव से उसे जो शास्त्र अथवा तत्व युक्तिसंगत (सुसंगत) प्रतीत होते हैं उन्हें ही वह स्वीकार करता है। कहा भी है कि "रामस्त नयों का परस्पर अनेक प्रकार का विरोधी वक्तव्य सुनकर समस्त नयों से समस्त बिशुद्ध तत्व को ग्रहण करने वाला मुनि चारित्र-गुण में लीन होता है।"
(अनुयोग द्वार)
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