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________________ सामायिक सूत्र : शब्दार्थ एवं विवेचना ६३ भी समभाव एवं समदृष्टि रखने का नाम ही तुल्य- परिणामरूप सामायिक है । इष्ट-अनिष्ट पदार्थों के संयोग में होती राग-द्वेष की वृत्तियाँ अज्ञान के कारण होती हैं । श्रुतज्ञान के — सम्यग्ज्ञान के सतत अभ्यास से विवेकदृष्टि जागृत होने पर पुद्गल पदार्थों में होने वाली इष्ट-अनिष्ट की कल्पना दूर हो जाती है और चित्त समवृत्ति धारण करता है, जिसके द्वारा शुभ ध्यान में स्थिरता आती है और ध्यान में एकाग्रता आने से निश्चल - अनाहत समता प्रकट होती है । इस प्रकार श्रुतज्ञान के अभ्यास से ध्यान की वृद्धि और ध्यान से समता की वृद्धि होती है । ऐसे समता के परिणाम को आत्मा में प्रविष्ट कराने को "सामायिक" कहते हैं । यहाँ वचन अनुष्ठान और शास्त्रयोग की प्रधानता होती है । कहा भी है कि शास्त्र के समक्ष जाने से अर्थात् शास्त्रानुसार अनुष्ठान करने से वीतराग परमात्मा की आज्ञा पालन- स्वरूप परमभक्ति होती है, जिसके प्रभाव से समस्त योगों की सिद्धि होती है, समरस भाव प्राप्त होता है उसे "सामायिक" भी कहते हैं, वही समतायोग है । चित्त की तन्मयता और मनोगुप्ति का दूसरा प्रकार (समता में प्रतिस्थापन) भी इस " सामायिक" वाले पर घटित हो सकता है । "योगसार" में भी कहा है कि उत्तम योगियों को सदा समस्त प्रकार की मानसिक, वाचिक अथवा कायिक प्रवृत्तियों में मन, वचन और काया से साम्य रखना चाहिए; क्योंकि समस्त शास्त्रों के अध्ययन एवं श्रमण जीवन के समस्त सदनुष्ठानों आदि का विधान " समभाव" प्राप्त करने के लिये ही है । जिस प्रकार चन्दन आदि वृक्षों का छेदन किया जाये तो वे क्रोधित नहीं होते और घोड़ों आदि का आभूषणों से शृंगार किया जाये तो वे प्रसन्न नहीं होते, उसी प्रकार से मुनि भी सुख-दुःख के प्रसंगों में राग-द्वेष नहीं करते, तब समता प्रकट होती है । जिस प्रकार सूर्य मनुष्यों को उष्णता प्रदान करने के लिये तथा चन्द्रमा सन्ताप नष्ट करके शीतलता प्रदान करने के लिए श्रम करता है, उसी प्रकार मुनिगण को समता प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करना चाहिये । मैत्री आदि भावना में लीन बना मुनि अपनी आत्म-सत्ता को समस्त जीवों से अभिन्न जानकर परम शान्तरस में तन्मय रहता है, जिससे उसमें कदापि संक्लेश उत्पन्न नहीं होता, अर्थात् समस्त आत्माओं के साथ चेतनता से समानता की भावना से युक्त मुनि उन्हें अपनी आत्मा के समान मानता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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