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________________ योगाधिराज सामायिकधर्म अनन्त ज्ञानी, अनन्त उपकारी श्री जिनेश्वर भगवान के शासन में मोक्ष की सम्पूर्ण साधना क्रमबद्ध भूमिका के रूप में वर्णित है। विश्व के समस्त दर्शनों द्वारा प्रदर्शित योग अथवा अध्यात्म आदि प्रक्रियाओं का इसमें अन्तर्भाव हो चुका है। सुविहित शिरोमणि पूज्य हरिभद्रसरिजी महाराज के "योगबिन्दु",, “योगशतक" एवं “योगदृष्टि समुच्चय" आदि ग्रन्थों के अध्ययन, मनन से ये रहस्य अत्यन्त स्पष्टतया समझे जा सकते हैं। जैन धर्म में प्रत्येक अनुष्ठान भावपूर्वक करने का विधान है। भाव की उत्पत्ति मन में होती है। मन की वृत्तियों पर वाचिक एवं कायिक प्रवृत्तियों का भी प्रभाव होता है । जीवन-विकास-लक्षी किसी भी साधना की नींव में वचन और काया के द्वारा अशुभ प्रवृत्ति का त्याग और शुभ प्रवृत्ति का आचरण जैन दर्शन ने आवश्यक माना है । वाचिक एवं कायिक प्रवृतियों में से अशुभ तत्व हटाये बिना मानसिक शुभ वृत्तियाँ उत्पन्न होनी कठिन हैं। उत्पन्न हो उत्पन्न हो चुकी शुभ वृत्तियों को स्थायी रखना तो इससे भी अधिक दुष्कर जैन दर्शन में निर्दिष्ट सामायिक धर्म की आगवी साधना इसी नींव पर आधारित है। सामायिक स्वीकार करने की प्रतिज्ञा में समस्त अशुभ प्रवृत्तियों का त्याग और शुभ प्रवृत्तियों का सेवन किया जाता है। इस कारण से ही समस्त प्रकार के योगों और अध्यात्म-प्रक्रियाओं का “सामायिक" में समावेश हो जाता है । कहा भी है कि सामायिक गुणानामाधारः, खमिव सर्वभावानाम् । न हि सामायिकहीना-श्चरणादिगुणान्विता येन । (अनुयोगद्वार सूत्र, टीका) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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