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________________ परीषह-जयी निरन्तर आशीर्वाद मिलता रहा है । यही मेरा सौभाग्य है । " नामकरण :- इस संग्रह का नाम 'परीषहजयी' रखने का प्रयोजन इतना ही है कि सभी नौ (पूर्णांक) काहानियों उन मुनियों के संदर्भ में है जिनसे पूरा जैन समाज परिचित है । जिनकी दृढ़ता, सहनशक्ति हरयुगमें प्रेरणा देती रही है । ऐसे चरित्रों का अनुशरण हमें कषाय से मुक्ति दिलाने में दृढ़ सहनशक्ति प्राप्त करने में एवं आत्मकल्याण के पथ पर आगे बढ़ने में तो मदद करता ही है, पर इस क्षमाशक्ति से पारिवारिक, सामाजिक पारस्परिक वैमनस्य दूर होता है । बड़े से बड़े संघर्ष टल जाते हैं, चाहे वे व्यक्तिगत हों, राष्ट्रीय या आन्तराष्ट्रीय हों । क्षमा से बड़ा धर्म भी क्या हो सकता है ? परीषह सहन करने क्षमा ही सबसे बड़ा गुण है । आभार : - कहानी संग्रह की पाण्डुलिपी २-३ वर्षो से पन्नों में ही परीषह सहन कर रही थी । लेखक लिख तो सकता है पर प्रकाशन तो अर्थ पर ही निर्भर होता है । शायद निमित्त नहीं जुड़ पा रहा था । वह निमित्त भी जुटा । पू. गणध्राचार्य कुन्थुसागर जी महाराज का १९९६ में अहमदाबाद, खोखरा मंदिर में चातुर्मास सम्पन्न हुआ । चातुर्मास की पूर्णता के पश्चात उनकी गिरनार यात्रा की सहर्ष संघपति बनकर श्री रमेशचन्द्र कोटड़िया एवं परिवारने जिम्मेदारी का स्वीकार किया । श्री रमेशचंदजी एवं उनके पुत्र सभी मेरे स्नेही मित्र हैं । उनसे परिचय अमरीका एवं बंबई में हुआ था । वे धर्मप्रिय वाचक हैं । तीर्थंकरवाणी के उपसंरक्षक थे ही । इसी दौरान उनकी जिज्ञासा सत्साहित्य प्रकाशन की थी । मेरे पास पाण्डुलिपी थी । उन्होंने तुरंत स्वीकृति देते हुए प्रकाशन खर्च की आंशिक स्वीकृति देकर मेरा मार्ग प्रशस्त किया । इसी के परिणाम स्वरूप यह पुस्तक आपके समक्ष प्रस्तुत कर सका । इससे उनका व परिवार का आभारी हूँ । पू. उपा. ज्ञानसागरजी का कृतज्ञ हूँ कि वे मेरे प्रेरणास्रोत रहे । पू. गणधराचार्य कुन्थुसागरजी का ऋणी हूँ कि जिन्होंने अपना मंगल आशीर्वाद दिया । सबसे अधिक आभारी आप सबका हूँ जो इस साहित्य को पढ़कर धर्म के प्रति दृढ़ बनेंगे और मुझे प्रोत्साहित करेंगे । अल्पसमय में पुस्तक प्रकाशित होने के निमित्त कॉम्प्यूटर ऑपरेटर, डिजाइनर, प्रिन्टर, बाईन्डर सभी धन्यवाद के पात्र हैं । डॉ. शेखरचन्द्र जैन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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