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XXXXXXXX परीपह-जयी Xxxxxx शिल्पियों की तपस्या साकार हो उठी थी । विशाल मंदिर नयनाभिराम और चित्त को प्रसन्न करने वाला था । मंदिर को देखते ही आँखें कला के दर्शन में ही स्थिर हो जाती। विशाल रंग मंडप में बने शिवलीला के चित्र मनोहरी थे । विशाल नान्दी को देखकर लगता था कि अभी खड़ा हो जायेगा । गर्भगृह में विशाल शिवलिंग प्रस्थापित था । जिस पर त्रिपुण्ड जगमगा रहा था । लिंग के ऊपर बंधे हुए कलश से निरन्तर जल धारा का वर्षण हो रहा था । विलिपत्र और आक के पुष्प भक्तों द्वारा लिंग पर श्रद्धा से चढ़ाये जा रहे थे । मधुर घण्टनाद और शंखध्वनि गूंज रही थी । भक्त गण शिवमहिमा स्त्रोत का सुरीले गंठ से गान कर रहे थे । मंदिर के गर्भगृह में अनेक पकवान मिष्टान ,फल ,मेवों के थाल सजे हुए थे । इन थालों को देखकर समन्तभद्र के मन में यह विचार कौंधा – “यदि मुझे इस मंदिर में रहने का अवसर मिल जाए तो निश्चित रूप से मुझे आवश्यक भोजन प्राप्त हो सकेगा । और मैं रोग -मुक्त हो सकूँगा ।"
समन्तभद्र ने लोगो से पूछ कर यह जान लिया कि इस मंदिर का निर्माण महाराज शिवकोटी ने कराया है । प्रसाद के थाल भी राज भवन से आते हैं ।
पूजन के पश्चात भगवान को भोग लगाने के बाद पुजारी समस्त पकवान, फल ,मेवे बाहर लाया और उपस्थित भक्तों को प्रसाद के रूप में थोड़ा थोड़ा बाँटने लगा । थोड़े से प्रसाद से समन्तभद्र की क्षुधा कैसे शान्त होती ? इतना प्रसाद तो उनके लिए वैसे ही था ,जैसे ऊँट के मुँह में जीरा । उन्होंने अपनी प्रखर बुद्धि से मन ही मन में एक तरकीब सोचकर पुजारी जी से कहा- "पुजारी जी क्या आप लोगों में से भगवान शिव का कोई ऐसा परम भक्त नहीं है जो भगवान शिव को यह समस्त प्रसाद खिलवादे । "
___ “हमने तो ऐसा न आज तक देखा है और न सुना है । अरे भाई क्या मूर्तिरूप भगवान कभी प्रसाद खाते हैं । " पुजारी ने जिज्ञासा और आश्चर्य से पूछा । ___ “क्यों नहीं । यदि हमारी भक्ति सच्ची है तो भगवान को साक्षात् भोजन को आरोगना ही पड़ेगा । समन्तभद्र ने पूरी दृढ़ता से अपने कथन की सच्चाई साबित करने के लिए जोर से कहा ।
इस नये आगन्तुक की बात और बात कहने दृढ़ता देखकर सभी लोग आश्चर्य चकित हो गए । आज तक कभी किसी ने ऐसा देखा सुना नहीं था कि
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