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*** परीषह-जयी
परीषहजयी
हृदयोद्गार किसी भी धर्म के विकास,प्रचार-प्रसार में उसके स्थापक ,प्रवर्तक एवं अनुयायियों का तप-तेज-उत्सर्ग का योगदान प्रमुख रूप से होता है । इनके ये बलिदान ही युग युगान्तर तक धर्म की जगमगाहट बने रहते हैं । ऐसे ही बलिदान के आत्मोत्सर्ग के अनेक उदाहरण शास्त्रों में दृष्टव्य हैं ।
हम जानते हैं कि जैन दर्शन-साहित्य चार अनुयोगो में विभाजित है । इनमें सर्वप्रथम प्रथमानुयोग या कथानुयोग है । विविध कथानकों के उदाहरणों द्वारा धर्म-नीति के सिद्धान्तों को पुष्ट करके धर्म के प्रति आस्थावान बनाया है। धर्म के गहन सिद्धान्त भी कथाओं के माध्यम से सरल एवं लोकमान्य हो जाते
साहित्य-विद्या में भी कथासाहित्य का विशेष स्थान रहा है । इसकी जिज्ञासावृत्ति "फिर क्या हुआ " की भावना,कथोपकथन की सजीवता,घटनाओं के परिवर्तित रूप-पाठक व श्रवणकर्ता को आनंद प्रदान करते रहे हैं । मानसिक थकान महसूस करनेवाला भी किस्सों को सुनकर तनावमुक्ति का अनुभव करता है । यही कारण है कि कथा साहित्य लोकप्रिय हुआ |
धर्मप्रचारकों ,साधुसंतों एवं विद्वानों ने इसी कथा-माध्यम से धर्म की गूढ़ बातों को सरलता से लोगों को समझाया ।
वर्तमान वैज्ञानिक युग में भी कथासाहित्य उतना ही लोकप्रिय है । हाँ उसमें कल्पना से अधिक वास्तविक जीवन के यथार्थ को विशेष आलेखित किया जाने लगा है ।
__ हमें पौराणिक-ऐतिहासिक एवं बहुश्रुत आधार पर अनेक कथायें पढ़ने,सुनने को मिलती हैं । मुझे लगता है कि वर्तमान में श्रद्धा ,भक्ति ,विश्वास और चरित्र-निर्माण में उन कथाओं का विशेष महत्त्व रहा है और रहेगा ।
जैन साधु अनादि युग से परीषहजयी रहे हैं । संसार के समस्त भोगविलास को तृणवत त्यागकर आत्मकल्याण में लीन ये सदैव दीप-स्तंभ बने रहे हैं । दर्शन--ज्ञान को पूर्ण रूपेण चारित्र में उतारने वाले ये कथनी-करनी में सदैव अद्वैतवादी रहे । व्रतों के महाव्रती ये साधू देह के अनेक कष्ट कर्मोदय
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