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________________ Xxxxxxxx परीषह-जयी* - *-*-*-* इस दिव्य ध्वनि को सुनकर रानी को आश्चर्य हुआ । और प्रसन्नता हुई । उन्होंने अनुभव किया कि उनकी सच्ची जिन भक्ति से प्रभावित होकर किसी सम्यक् दृष्टि देव-देवी ने मेरी सहायता करने का संकल्प किया है । रानी ने भक्तिभाव से पूजन सामायिक और महल में लौटकर सेवकों को आदेश दिया कि वे चारों दिशाओं में जाएँ और अकलंक देवजी को ढूंढ़ कर सम्मान सहित ले आएँ। जैसा कि रानी ने दिव्य ध्वनि में सुना था । उसी तरह अकलंक स्वामी को अपने नगर में पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुई । रानी ने भक्तिभाव से उनके चरणों में वन्दना की और अश्रु भरी आँखों से दुःखी होकर रथयात्रा पर जो उपसर्ग आया है उसका हाल सुनाया । "देवी आप धैर्य धारण करें । पवित्र जैन धर्म को कोई अपमानित नहीं कर सकता और मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि सच्चे शास्त्रों के आधार पर मैं इस विघ्न करने वाले धूर्त को अवश्य परास्त करूँगा ।" अकलंक देव ने रानी को धैर्य बँधाते हुए बैद्ध गुरू के पास शास्त्रार्थ करने की स्वीकृति भेजने को कहा। अकलंक देव का पत्र उनकी स्वीकृति के साथ संगश्री के पास भेज दिया गया । पत्र की भाषा को देखकर ही संगश्री को आभास हो गया कि यह कोई साधारण विद्वान नहीं है । उसके मन में शास्त्रार्थ से पूर्व ही पराजय का भय उत्पन्न हो गया । परन्तु उसने ही शास्त्रार्थ के लिए ललकारा था ,अतः उसे अब शास्त्रार्थ करने के अलावा कोई मार्ग ही न था । महाराज हिमशीतल ने अकलंक एवं संघश्री के शास्त्रार्थ की योग्य व्यवस्था की । राजदरबारीओं ,विद्वानों और आमजनता में जिज्ञासा और कुतूहल की लहर दौड़ गई , सभी की नजरे इस शास्त्रार्थ पर टिकी हुई थी क्योंकि यही निर्णायक शास्त्रार्थ था जिससे जैन धर्म या बौद्ध धर्म की प्रतिष्ठा प्रस्थापित होनी थी । प्रथम दिन ही अकलंक देव ने ऐसे प्रश्न किये कि संघश्री निरूत्तर हो गया । लेकिन उसने बहाना ढूढ़ते हुए महाराज से कहा -"महाराज यह कोई साधारण प्रश्नोत्तरी का शास्त्रार्थ नहीं है । गहन सिद्धान्तों की चर्चा करनी है । मैं चाहता हूँ कि यह शास्त्रार्थ नियमित रूप से चलता रहे ,और इसका निर्णय तभी हो सकेगा जब एक पक्ष पूर्णरूप से निरूत्तर हो जाएँ, " संघश्री ने उस दिन प्रसंग टालने के लिए राजा को समझाया । अकलंक देव की स्वीकृति पाकर महाराज ने यह बात स्वीकार कर ली। और दूसरे दिन शास्त्रार्थ की व्यवस्था की । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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