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Arrrrr परीषह-जयी -*-*-*रथ यात्रा बन्द करवा देनी चाहिए । आप जानते हैं कि महान बौद्ध धर्म के सामने
जैन धर्म तुच्छ है । कोई हम से शास्त्रार्थ नहीं कर सकता।" नगर में निवास कर रहे बौद्ध गुरू संगश्री ने महाराज के कान भरते हुए इस रथयात्रा को रूकवाने का आग्रह किया ।
राजा ने गुरू की बात मानते हुए ,रथ यात्रा रूकवा दी ।
" महाराज यह मैं क्या सुन रही हूं, ? आपने जिनेन्द्र भगवान की शोभा यात्रा रूकवा दी है । " रानी ने महाराज से पूछा और कारण जानना चाहा ।
"हाँ, महारानी तुम्हारी रथ यात्रा हमने स्थगित करवा दी । हम चाहते है कि तुम्हारा कोई जैन विद्वान या साधु जब तक हमारे धर्म गुरू संगश्री आचार्य से शास्त्रार्थ करके विजय प्राप्त नहीं करता ,तब तक यह रथयात्रा सम्पन्न नहीं हो सकती।"
महारानी इस शर्त को सुनकर आवाक रह गई । वे सीधे मंदिर में विराजमान मुनि महाराज के पास पहुंची और सारी परिस्थिति का बयान करते हुए समस्या को प्रस्तुत किया । मुनि महाराज ने अपनी अल्पज्ञाता व्यक्त करते हुए शास्त्रार्थ के लिए अपनी असमर्थता व्यक्त की । रानी इस उत्तर से निराश हुई उन्हें लगा कि उनका जैन धर्म यदि परास्त हो गया तो उसका अस्तित्व ही क्या रहेगा ? जब धर्म का अस्तित्व ही नहीं रहेगा तो मेरे जीवित रहने का अर्थ ही क्या है ? इस प्रकार दु:खी रानी ने भगवान की प्रतिमा के समक्ष पंचपरमेष्ठी को साक्षी मान कर यह प्रतिज्ञा की - "जब तक मुझे धर्म का प्रभावी विद्वान ,जो शास्त्रार्थ में इस मिथ्यात्वी बौद्ध आचार्य को नहीं हरायेगा । तब तक मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करूँगी । समाधिमरण का वरण करूँगी । मैं अपने जीते जी अपने धर्म की तौहीन होते हुए नहीं देख सकती।"
रानी आँखे बन्द किए अरिहन्त प्रभुके सामने एक चित्त होकर ध्यानस्थ हो गई। एकाएक उन्हें लगा कि एक प्रकाश पुंज उनके सामने फैल रहा है ,और जैसे उनके कानों में ये शब्द गूंजने लगे -"रानी ,तुम चिन्ता मत करो तुम्हारे हृदय में पंचपरमेष्ठी प्रभु के प्रति जो श्रद्धा और भक्ति है ,वह निश्चित रूप से तुम्हारी मनोकामना पूरी करेगी । कल प्रात:काल जैन दर्शन के उद्भव विद्वान अकलंक देव स्वयं यहां पधारेंगे । बौद्ध गुरू को शास्त्रार्थ में हरायेंगे । तुम्हारा रथोत्सव निर्विघ्नता पूर्वक सम्पन्न होगा ।"
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