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________________ xxxxxxx परीषह-जयीxxxxxxxx सेवा के लिए बचानी है । भइया तुम्हें यह वरदान भी प्राप्त है कि तुम एक संस्थ हो विद्वान हो । यदि तुम जीवित रहोगे तो अपनी इस स्मरण शक्ति और विद्वता से एक दिन जैन धर्म का डंका बजाओगे । " ___ "लेकिन मैं ऐसा नहीं करूँगा । तुम्हें छोड़कर जीने से तो मुझे मरना अधिक पसन्द है । " "जिद्द मत करो भइया । समय चर्चा का नहीं है । भावुक होने का नहीं है। तुम जानते हो कि मैं तुम्हारी तरह किसी भी ज्ञान को एक बार में याद नहीं कर पाता, और तुम जितना विद्वान भी नहीं हूँ । मुझे अपने प्राणों की कोई चिन्ता नहीं यदि तुम कभी भी जैन धर्म की ध्वजा फहराओं तो मुझे मृत्यु के बाद यह संतोष रहेगा कि मेरे भाई ने जैनधर्म का झण्डा फहराया है । " "लेकिन ....। " अकलंक ने कुछ कहना चाहा । "लेकिन-वेकिन कुछ नहीं । तुम्हें मेरी सौगन्ध है, जैनधर्म की सैगन्ध है। जल्दी करो तालाब में छिप.जाओ । देखो दुष्ट लोग करीब पहुंचने ही वाले हैं । ' निकलंक ने अकलंक को तालाब की ओर धकेलते हुए कहा । ___ अकलंक को निकलंक की बात माननी पड़ी और वह तालाब के अन्दर , कमलपत्रों के बीच पंचपरमेष्ठी का स्मरण करते हुए पानी में छिप गया । छिपने से पूर्व उसने निकलंक को गले से लगाया । ओठों पर मौन था , पर आँखे बरस रही थी । भाई को मौत की शरण में छोड़कर छिपना उसके लिए मौत से अधिक बदतर लग रहा था । परन्तु अन्य कोई उपाय भी नहीं था । उसने अपने मन को मनाते हुए सोचा था कि "प्रभु मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि जीवित रहूँगा तो सिर्फ जैन धर्म के प्रचार के लिए । " निकलंक ,अकलंक को तालाब में प्रवेश करते देख एक क्षण के लिए आसन्न मौत को भी भूल गया । यह खुशी उसकी आँखों में झलक उठी कि उसका भाई अवश्य एक दिन जैनधर्म का डंका बजायेगा। __ निकलंक ने देखा कि उसके हत्यारे और निकट पहुँच रहे है, अत: वे और भी जोर से भागने लगे। " क्यों भाई ,तुम क्यों दौड़ रहे हो । यह धूल कैसी उड़ रही है ? घुड़सवारों की घोड़ो की टापों की आवाजे सुनाई पड़ रही है । " एक धोबी ने भागते हुए निकलंक से पूछा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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