________________
Xxxrxrkird परीषह-जयीrketrintrik नहीं लाए ? " __ " महाराज वे कोठरी में नहीं हैं । "
इतना सुनते ही आचार्य का क्रोध सातवें आसमान पर चढ़ गया । उन्होंने रक्षक को इस शक में बन्दी बना लिया कि इसी ने उन दोनों को भगाने में सहायता की है।
कैदी भाग गए - कैदी भाग गए का शोर पूरे वातावरण में गूंजने लगा । हल्ला-गुल्ला होने लगा । तुरन्त उन्हें जिन्दा या मुर्दा पकड़ लाने के आदेश दिए गए। चारों दिशाओं में सैनिकों को दौड़ाया गया । सैनिक जंगल ,पहाड़ सभी स्थानों पर छान बीन करने लगे । छिपने योग्य सभी स्थानों को ढूढ़ डाला गया । दोनों भाई जान हथेली पर लेकर जंगल की दुर्गम राहों पर लहू-लूहान होकर भागे जा रहे थे। सुबह होने की थी । अभी तक सैनिक उन्हें पकड़ नहीं पाये थे । इसलिए उनका क्रोध और भी बढ़ा रहा था । उनके घोड़े जंगल को रौंध रहे थे । लगता था कुछ घुड़सवारों की नजर में दौड़ते हुए ये दोनों बिन्दु नजर पड़ गए थे । उधर दोनों भाईयों ने दौड़ते-दौड़ते जब पीछे देखा और उड़ती हुई धूल ,घोड़ों के टापों की आवाज सुनी तो वे समझ गए कि अब मृत्यु निश्चित है ।
"भइया अकलंक! देखो उड़ती हुई धूल और टापों की आवाज हमारी मृत्यु का संदेश लेकर आ रही है । लगता है कि हम जैन धर्म की सेवा करने से पहले ही मौत के मुख में समा जायेगे । '' निकलंक ने परिस्थिति को जानकर अपनी वेदना व्यक्त की ।
" भाई निकलंक ! तुम सत्य कह रहे हो । मुझे मृत्यु का भय नहीं है । लेकिन अफसोस यही रहेगा कि हम लोग अपनी विद्या का उपयोग जैनधर्म के विकास में नहीं लगा सके , और अब हमारे पास कोई उपाय भी नहीं है ।" अकलंक ने अफसोस के साथ कहा । उपाय है । भइया देखो सामने यह तालाब है जो कमल पत्रों से लगभग आच्छदित है । तुम इस तालाब में छिपकर जान बचाओ । निकलंक के मन में विचारों की बिजली कौधी ।
"कैसी बातें करते हो निकलंक मैं अपने छोटे भाई को मौत के मुहँ में धकेलकर अपनी रक्षा करूँ तो मेरे जीवन को धिक्कार है । अब तो जीना और मरना साथ ही होगा। "
" ऐसी बात नहीं भइया तुम्हें अपनी जान अपने लिए नहीं जैन धर्म की
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org