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________________ Xxxxxxxx परीषह-जयीxxxxxxxx इधर ज्यों-ज्यों मुनि सुकुमाल की देह क्षत्त विक्षत्त हो रही थी त्यों-त्यों उनके कर्म क्षय हो रहे थे । श्रृगालिनी जितनी खुश हो रही थी उसके पापकर्म उसे उतना ही बाँध रहे थे। जिस सुकुमाल शरीर ने एक खरोच भी नहीं सही थी वे इस घोर कष्ट में भी सुमेरू से अचल थे । उन्हें पता ही कहाँ था कि वे देह में है । पुद्गल की माया तो कब से छूट गई थी । श्रृगालिनी के इस वीभत्स रूप से उनकी देह का भक्षण करना इस कल्पना से ही रोंगटे खड़े हो जाये ऐसा दृश्य था वर्णन ही हृदय को पिघलाने वाले अश्रु से भिगोने वाला था । पूरे तीन दिन तक श्रृगालिनी ने मुनि के शरीर का भक्षण किया । सुकुमाल मुनि इस सबसे बेखबर उपसर्ग को सहन कर रहे थे । सच भी है कि जिसे देव शास्त्र गुरू पर, जिन धर्म पर सच्ची श्रद्धा होगी उसमें निर्मलता के गुण ,क्षमा करूणा ,मैत्री समता के भाव ही प्रगटेंगे । ऐसे तपस्वी के समक्ष भय भी भय खाता है । मृत्यु भी हाथ जोड़े खड़ी रहती है । आत्मा की पवित्रता विघ्नों से कभी नहीं डरती । देह क्षीण हो रहा था ,पर मनोभाव उज्जवल प्रकाशवान होते जा रहे थे । अरे उन्हें तो सियारनी पर भी क्रोध नहीं आया था वे तो समभाव के सागर को आत्मसात कर चुके थे । __ आखिर आयु का वह अंतिम तीसरा दिन आ गया । क्षण भर भी न्यूनाधिक नहीं होने वाली आयु का आज अंतिम दिन था । मृत्यु मुनिजी के लिए आज महोत्सव ही थी । उनके कर्मबन्ध पूर्णरूप से कट चुके थे । आज उनके घातिया अघातिया कर्म क्षय हो चुके थे । वे आज इस चिन्तन आत्मा को देह से पृतक कर रहे थे । सांध्यावेला में आत्मा देह से पृथक चिर शांति को प्राप्त कर मुक्त हो गया। __ मुनि सुकुमाल की इस दृढ़ता ने स्वर्ग के इन्द्रासन को भी हिला दिया पूरे स्वर्गलोक में उनकी दृढ़ता समता के चर्चे हो रहे थे । उनकी वीरमृत्यु का गुण गान गाया जा रहा था । स्वर्ग से आकर देवताओं ने उनका मृत्यु महोत्सव मनाया । देह के सुकुमाल त्याग के महान प्रतीक बन गये । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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