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परीषह-जयी
मुनि सुकुमाल घने जंगल में एक स्वच्छ शिला पर समाधिमरण का संकल्प कर दृढ़ता पूर्वक ध्यानस्थ हो गये ।
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मुनि के पांवो से बही रक्त की धारा को देखकर जंगल से गुजर रही सियारनी के मुँह में पानी भर आया । वह भूमिपर पड़े रक्त को चांटती जाती थी । रक्त चांटते चाटते उसे जातिस्मरण हो आया । उसे याद आया 'अरे यह तो मेरा पूर्व भव का वही देवर है । वायुभूति है जिसके कारण मेरे पति को वैराग्य हो गया था । जिसने मुनि निंदा की थी । मेरे से वे यह कहने पर कि वे तुम्हारे कारण ही तुम्हारे भाई मुनि हो गये . इस पर नाराज होकर मुझे लातों से मारा था । यही वह दुष्ट है जिसके कारण मुझे पति विरह की अग्नि में जलना पड़ा था ।
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श्रृगालिनी के भावों में हिंसा भड़क उठी आँखों में बदले की भावना की चिनगारियाँ उठने लगी । मैंने तभी प्रतिज्ञा की थी कि मैं जब भी जिस जन्म में भी मौका मिलेगा बदला अवश्य लूंगी । आज वह मौका मुझे मिला है । सियारनी प्रसन्न थी कि आज उसे अपने अपमान का बदला लेने का अवसर मिला है ।
अग्निभूति की इस पत्नी का मरण आर्तरौद्र ध्यान के कारण हुआ । इस कुध्यान के कारण वह अनेक कुयोनियों में भटक कर इसी वन में श्रृगालिनी के रूप में जन्मी थी । उसके साथ उसके बच्चे भी थे ।
सुकुमाल के खून की बूँद ने उसे सब कुछ स्मरण दिया दिया । अब वह बेचैन थी उनकी देह का भक्षण कर अपनी वैर भाव का बदला लेने को । सियारनी खूनकी धार का अनुशरण करती हुई वहाँ पहुँची जहाँ मुनि सुकुमाल पूर्ण ध्यान में लीन थे । अब तो आयु के दो ही दिन शेष थे । वे धर्मध्यान से ऊपर उठकर शुक्लध्यान में अवस्थित हो चुके थे ।
अपने वैरी को देखकर श्रृगालिनी का क्रोध और भी भड़क उठा । वह उनके निकट अपने बच्चों सहित पहुँची । उनके शरीर पर प्रहार कर उसे नोच नोच कर खाने लगी। पूरे शरीर में सौकड़ो घाव रिसने लगे । खून की धारा बहने लगी । मांस के लोथड़े लटकने लगे । श्रृगालिनी इस मांस को खाती, खून पीती और राक्षसी आनंद से चीखती । लगता था अपनी इस सफलता का वह जश्न मना रही
है ।
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