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________________ परीपह-जयी ने उन्हें ताम्बूल देकर कर स्पर्श करने का आनन्द प्राप्त किया । कोई अपने कण्ठाभरण बताने के बहाने वक्षस्थल को प्रकट करने लगी । कोई विवाह की वस्त्र सजावट को हटाकर नाभि दर्शन कराने लगी तो कोई अपने उरु युगल को दर्शाने लगी। किसी ने तिरक्षे नयनों से, मुस्कराते ओंठो से लुभाने का प्रयास किया । कोई कामसूत्र के भावों को पढ़ने लगी और कोई वीणा वादन, काव्यपठन द्वारा जंबूकुमार को रिझाने की चेष्टा करने लगी । नववधुओं ने अपने सौन्दर्य कला, विद्या और संगीत सभी प्रकार के हाव-भाव जताकर जंबूकुमार को रिझाने का पूरी रात प्रयत्न किया । लेकिन सुमेरू से दृढ़ जंबूकुमार पर इन वासना जन्य बातों का कोई प्रभाव न पड़ा । उनके चेहरे पर काम-भाव का रंचमात्र भी उदय नहीं हुआ । वे इस वासना के पंक में भी पंकज की भांति अल्पित रहे । उनकी इस अड़िगता को देखकर वे चारों मन में झुंझला उठीं । उन्होंने जंबूकुमार पर अनेक व्यंग किये । उन्हें काम के प्रति आकर्षित करनेके लिए अनेक उदाहरण देते हुए , उन्हें उकसाने की कोशिश की । प्रत्येक पत्नी ने एक-एक ऐसी कथा प्रस्तुत की जिसमें व्यंग भी था और काम की ओर आकर्षित करने के भाव भी थे । लेकिन जंबूकुमार ने प्रत्येक कथा का उत्तर बड़े ही सटीक ढंग से कथाओं के माध्यम से दिया और हर कथा के द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि त्याग ही जीवन की श्रेष्टता है और सच्चे सुख का मार्ग है । इस प्रकार परस्पर के वार्तालाप में रात्रि का अन्तिम प्रहर भी बीतने हो हुआ । मुर्गे की बाँग भी प्रातः काल की सूचना देने लगी । * "कौन हो तुम जो मेरे इस महल में चोर की तरह प्रवेश करके मेरे पुत्र के शयनकक्ष के बाहर खड़े होकर, पति-पत्नी के संवाद को सुन रहे हो ? जिनमती सेठानी ने इस अजनबी को देखकर जिज्ञासा से प्रश्न किया । "माँ मैं विद्युतच्चर चोर हूँ। जो अपनी प्रियतमा वेश्या के लिए धन चुराकर भाग रहा था, और मेरे पीछे सुरक्षा कर्मचारी पड़े हुए थे । उनसे बचने के लिए जब अन्य कोई उपाय न सूझा तो इस हवेली के खुले द्वार देखकर इसमें छिपने के लिए आया था । " विद्युतच्चर ने अपना परिचय देते हुए सब कुछ बता १२५ Jain Educationa International " For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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