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________________ परीपह-जयी संदेश को कहकर समझाने का प्रयत्न किया । "" पिताजी यदि ऐसा न हुआ तो ? " तो उन कन्याओं ने यह भी कहलवाया है कि यदि वे तुम्हें अपना न बना सकी तो वे भी तुम्हारे साथ दीक्षित हो जायेंगी । " "4 इस वाक्य ने जंबूकुमार के हृदय में हलचल मचादी । कुछ क्षड़ सोचकर गंभीर स्वर में कहा "ठीक है पिताजी मैं विवाह के लिए प्रस्तुत हूँ । इससे आपकी बात भी रह जायेगी ऐर मेरी परीक्षा भी हो जायेगी। हो सकता है कि मुझे अकेले की जगह हम पांच का आत्मोद्धार हो । 79 जम्बूकुमार के इस निर्णय से सेठ-सेठानी के मन वैसे ही खिल उठे जैसे प्रातः कालीन किरणों से रात्रि के कुम्हलाये कमल खिल जाते हैं । उन्होंने प्रसन्नता के गद्गद् होकर पुत्र को छाती से लगा लिया । वे दौड़कर बाहर आये एवं अपना कीमती रत्नजड़ित हार दूत को देकर प्रसन्नता से कहा - "दूत तुम जाओ सभी मित्रों से कहो कि वे विवाह की तैयारी करें । "" * I | सारे नगर में यह चर्चा हर होठ पर गूंज रही थी कि यह एक विशेष विवाह हो रहा है । शर्त और स्वीकृति भी विशेष है । यदि विवाह के पश्चात ये नववधुएँ अपने पति को अपने रूप जाल में आबद्ध न कर सकीं तो वे दीक्षित हो जायेंगी । यदि जंबूकुमार रूप की धूप से पिघल गये तो दीक्षा लेने का विचार छोड़ देंगे । यह तो योग और भोग का संघर्ष था । चारों श्रेष्ठि समुद्रदत्त, कुबेरदत्त, वैश्रवण एवं धनदत्त ने अपनी कन्याओं का विवाह एक ही मंडप में करने का निश्चय किया । विवाह मंडप की शोभा देखते ही बनती थी । लगता था कि स्वर्गपुरी धरती पर उतर आई है । विवाह मंडप ही नहीं पूरा नगर दुल्हन की तरह सजाया गया । विविध कमानों से सजे द्वार, उन पर बधे बन्धन बार, ध्वजा पताकायें, और रंग-विरंगी रोशनी से पूरा नगर जगमगा उठा । शहनाइयों के स्वर गूंज उठे । विवाह के गीतों से वातावरण मुखरित हो उठा । Jain Educationa International * १२३ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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