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________________ Xxxxxxxपरीपह-जयीxxnxnxxxxx स्वयं का पश्चाताप, माँ का दुःख एवं मामा एवं अन्य प्रियजनों के मार्गदर्शन की प्राप्ति से दोनों भाइयों ने दृढ़ निश्चय किया कि वे विद्याध्ययन करेंगे और पिता की प्रतिष्ठा को पुन: अर्जित करेंगे। दृढ़ निश्चय ही सफलता की कुंजी होती है। यह कुंजी इन भाइयों को मिल गई थी। मामा सूर्यमित्र ने इनकी अध्ययन की प्रबल इच्छा को जानकर अपने साथ अपने घर राजगृह ले गये। उनके पढ़ने की व्यवस्था की । दोनों भाइयों में पढ़ने की लगन थी- पढाई का निमित्त मिल गया। दोनों ने पूर्ण चित्त से पढ़ाई की और देखते ही देखते विद्याध्ययन में पारंगत हो गये। वेद, पुराण, शास्त्र, मंत्र-ज्योतिष एवं क्रियाकांड के गुणों को सीख गये। उनका पांडित्य निखर उठा। अभ्यास पूर्ण करके गुरूओं का आशीर्वाद, मामा की व्यावहारिक शिक्षा लेकर वे अपने घर वापिस लौटे। माँ ने उन्हें देखा - मानों आँचल में दूध उत्तर आया। आँखें छलछला आईं। उसने बेटों को छाती से लगा लिया। बेटों ने भी माँ के वक्षस्थल से लिपटकर वात्सल्य की सरिता में अवगाहन किया। . आज अग्निभूति और वायुभूति के चहेरों पर विद्वता की झलक थी। ब्रह्मचर्य का तेज था, ज्ञान की गरिमा थी। उनके ज्ञान-साधना की चर्चा पूरे राज्य में सवासित पुष्प की गंध सी प्रसारित हो गई। दोनों भाई महाराज के दर्शनों को पहुँचे। उनके ज्ञान की बातें यद्यपि महाराज के कानों तक पहुँच चुकी थीं.. पर उन्हें अपने सामने पाकर महाराज अति प्रसन्न हुए। दोनों भाइयों को गले लगाया। उन्हें उपाहार प्रदान किए ,योग्य आसन दिया। दोनों पुत्रों से बातचीत करते समय उन्होंने भाँप लिया कि दोनों सचमुच विद्वान हो गये हैं। महाराज ने पुत्रों को योग्य जानकर उन्हें राजपुरोहित के पद पर प्रतिष्ठित किया। ____ अग्निभूति और वायुभूति ने यह समाचार घर लौटकर अपनी माता को दिया। माँ का हृदय विह्वल हो उठा। दोनों बेटों को छाती से लगा लिया। उसके हृदय का वात्सल्य स्रोत और नयन का जल बालकों को प्लावित कर रहा था। आज माँ और बेटों की साधना सफल हो गई थी। लग रहा था स्वर्ग से सोमशर्मा की आत्मा भी इन्हें आशीर्वाद दे रही थी। कौशांबी के राजोद्यान में महामुनि अवधिज्ञानी मुनि सुधर्मजी रुके हुए थे। उनके उपदेशामृत का नगरजन पान कर रहे थे। वे कह रहे थे -"तत्त्व में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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