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________________ परीपह-जयी सुकुमाल मुनि बी के राज पुरोहित के यहाँ आज शोक के बादल छा गये। चारों ओर रुदन के स्वर फूट पड़े। काश्यपी का विलखना, हृदयविदारक चीखें पत्थर को भी पिघला रही थीं। परिवार के लोग, नगर के लोग, स्वयं कौशंबी नरेश उसे सान्त्वना दे रहे थे। कल तक जो भले चंगे राज्य के पुरोहित का पद भार सम्हाल रहे थेएकाएक हृदय रोग का शिकार बन गये । काल के गाल में समा गये । सोमशर्मा का इस तरह एकाएक काल - कवलित होना सभी के ऊपर मानों वज्राघात ही था । 'काश्यपी आज अनाथ हो गई थी। दोनों पुत्रों को छाती से लगाये उन्हें चुप कराने के प्रयत्न में स्वयं आँसू बहा रही थी । उसके दुःख का कारण पति वियोग तो था ही - साथ ही उसे चिन्ता थी लाड़-प्यार के कारण उसके पुत्र अनपढ़ - गँवार ही रह गये हैं । अब उसके पुत्रों में से कोई राजपुरोहित नहीं हो सकेगा । बचपन से ही इन दोनों पुत्र अग्निभूति और वायुभूति की पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान ही नहीं था । राजकाज और यजमानों में व्यस्त पुरोहितजी को समय ही नहीं थी कि पुत्रों पर भी ध्यान दें। माता का लाड़ कभी बेटों की उच्छृंखलता को देख ही न पाया । पिता का राजपुरोहित पद और धन, माता का लाड़ पुत्रों की प्रगति में बाधा बने । यद्यपि महाराज अतिबल चाहते थे कि सोमशर्मा के पुत्र ही उस पद पर प्रतिष्ठित हों- पर पुत्रों की मूर्खता अज्ञानता के कारण वे उन्हें राजपुरोहित के उच्च पद पर कैसे बैठाते ? आखिर मजबूर होकर उस पद पर अन्य व्यक्ति को राजपुरोहित बना दिया गया। काश्यपी और पुत्रों के लिये अर्थ व्यवस्था कर दी गई । माँ की विह्वलदशा और मामा सूर्य मित्र के समझाने पर दोनों भाइयों को वास्तविकता का परिचय हुआ । वे अपनी मूर्खता पर पछताने लगे। पिता के नाम स्वयं को कलंक समझने लगे। उन्हें पछतावा भी हो रह था । पश्चाताप की इस भावना ने ही उनके मन को पवित्र बनाया । सत्य के दर्शन कराये। सच भी है यदि व्यक्ति अपनी भूलों पर पश्चाताप करे तो भूलें स्वयं क्षमा बन जाती हैं। पश्चाताप मनुष्य को सत्पथ पर लौटा लाता है । Jain Educationa International १० For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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