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________________ परीषह - जयी धर्म के पालन एवं कठोर तप से संसार के दुःखों से मुक्त हुआ जा सकता है उसी से स्वर्ग सुख और मनुष्य जीवन में संयम धारण का अवसर मिल सकता है ऐसा विचार कर सागरचन्द्र ने वहीं दीक्षा ले ली । मुनि सागरचन्द्र के मन में भाव जागे कि वे विहार करते हुए वीताशोक नगरी जाँए और अपने पूर्व जन्म के भाई युवराज शिवकुमार को सतपथ पर लगायें । इसी भावना से अपने गुरू के साथ विहार करते हुए मुनि सागर चन्द्र वीताशोक नगरी में पधारे । मुनि महाराजों के दर्शन करते ही शिवकुमार को भी वैराग्य हो गया । उसने दीक्षा लेने का संकल्प किया । लेकिन उसे मां-बाप की आज्ञा प्राप्त न हुई, अतः उसका मन दुःखी हो गया । यद्यपि वह घर में तो रहा पर उसका मन फिर कभी घर में न लगा । उसे भोगों से घृणा हो गयी । अब वह अपने श्रृंगार, आनन्द प्रमोद यहाँ तक कि अपने देह के प्रति उदास रहने लगा । उसका अधिकांश समय आत्मसाधना में व्यतीत होने लगा । उसने सिर्फ कांजी का शुद्ध आहार लेकर वर्षों तक कठोर तप किया और अन्त में सन्यास पूर्वक मरण किया । इस तप के प्रभाव से शिवकुमार का जीव विद्युन्माली ही, यह तुम्हारे पुत्र जंबू कुमार के नाम से उत्पन्न हुआ । और यह यौवनावस्था में ही सन्यास धारण कर मुक्तिपथ का अधिकारी बनेगा । इसका विवाह, इसके स्वर्ग की चार देवियां, जिन्होंने इसी मगध देश में जन्म लिया है, वे इसकी पत्नियां होगी । इस प्रकार मुनि महाराज ने अपने अवधिज्ञान से जंबू कुमार के पूर्वभव की जीवन यात्रा का वर्णन किया । "" सेठ-सेठानी पुत्र के भव्य अतीत को ज्ञात कर प्रसन्न हुए । उनका बेटा यौवन में ही गृहत्यागी हो जाएगा इससे वे दुःखी भी हुए । परन्तु उनका दुःख उनकी सद्भावना से स्वयं दूर हो गया । वे सोचने लगे कि “बेटे के गृहत्यागी होने से हम दो को ही दुःख होगा, परन्तु इसके ज्ञान और तपस्या के प्रभाव से अनन्त जीवों का कल्याण होगा । लोगों को यह मोक्ष का पथ प्रशस्त करेगा । मेरा यह पुत्र संसार के जन्म मरण से मुक्त होकर मोक्षगामी होगा । वह तपस्या के प्रभाव से कर्मक्षय कर केवली होगा । इस प्रकार के भावों को भाते हुए अरहदास और जिनमती महाराज को वन्दन कर, जंबूकुमार को लाड़करते हुए घर लौटे । "" Jain Educationa International * ११४ For Personal and Private Use Only - * www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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