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द्वितीय अधिकार :: 41
कापोतलेश्या - जो दूसरों पर रोष करता हो, दूसरों की निन्दा करता हो, दूसरों को दोष लगाता हो, शोक या भय अधिक करता हो, दूसरे से ईर्ष्या रखता हो, दूसरे का तिरस्कार करता हो, अपनी प्रशंसा करता हो, अपने ही समान दगाबाज समझकर दूसरे की प्रतीति नहीं करता हो, स्तुति के वचन सुनकर सन्तुष्ट होता हो, हानि-लाभ को नहीं समझता हो, रण में मरने की इच्छा करता हो, अपनी प्रशंसा सुनकर बहुत दान करता हो तथा कार्य और अकार्य को नहीं समझता हो वह कापोतलेश्या का धारक है ।
पीतलेश्या - जो कार्य और अकार्य को समझता हो, सेव्य और असेव्य का विवेक रखता हो, सबके साथ समान व्यवहार रखता हो, दया एवं दान में तत्पर रहता हो और स्वभाव का कोमल हो वह पीतलेश्या है I
का धारक
पद्मलेश्या—जो त्यागी हो, भद्र परिणामी हो, उत्कृष्ट कार्य करनेवाला हो, अपराधों को क्षमा कर देता हो तथा साधु एवं गुरुओं की पूजा में तत्पर रहता हो वह पद्मलेश्या का धारक हो ।
शुक्ललेश्या - जो पक्षपात नहीं करता हो, निदान नहीं करता हो, सब जीवों पर समान भाव रखता हो तथा जिसके तीव्र राग, द्वेष और स्नेह न हो वह शुक्ल लेश्या का धारक है।
पहले से चौथे गुणस्थान तक छहों लेश्याएँ होती हैं और पाँचवें, छठे, सातवें - गुणस्थान में तीन शुभ लेश्या; उसके आगे तेरहवें गुणस्थान तक सिर्फ शुक्ललेश्या होती है। चौदहवें गुणस्थान में कोई भी लेश्या नहीं होती। ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में यद्यपि कषाय का सद्भाव नहीं है तो भी भूतपूर्व प्रज्ञापन नय की अपेक्षामात्र योगप्रवृत्ति में लेश्या का व्यवहार किया जाता है। चौदहवें गुणस्थान में योगप्रवृत्ति भी नहीं है, इसलिए वहाँ लेश्या का सद्भाव नहीं होता ।
कषाय—जो आत्मा के क्षमा आदि गुणों का घात करे उसे कषाय कहते हैं । इसके क्रोध, मान, माया और लोभ के भेद से चार भेद होते हैं।
वेद-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, और नपुंसकवेद के उदय से जो रमने का भाव होता है उसे वेद कहते हैं। इसके तीन भेद हैं—स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद । इन वेदों का सद्भाव नौवें गुणस्थान के पूर्वार्ध
तक रहता 1
मिथ्यात्व – दर्शनमोह के उदय से जो अतत्त्वश्रद्धान होता है उसे मिथ्यात्व कहते हैं ।
अज्ञान - ज्ञानावरण के उदय से जो ज्ञान प्रकट नहीं होता है वह अज्ञान कहलाता है। क्षायोपशमिक का अज्ञान मिथ्यात्व के उदय से दूषित रहता है और औदयिक भाव का अज्ञान अभावरूप होता है। जैसे अवधिज्ञानावरण का उदय होने से अवधिज्ञान का अभाव है ।
असिद्धत्व - आठों कर्मों का उदय रहने से जीव की जो सिद्धपर्याय प्रकट नहीं होती उसे असिद्धत्व कहते हैं। इसका सद्भाव चौदहवें गुणस्थान तक रहता है ।
असंयतत्व - चारित्रमोह का उदय होने से जो संयम का अभाव है उसे असंयतत्व कहते हैं । इसका सद्भाव प्रथम गुणस्थान से लेकर चतुर्थ गुणस्थान तक रहता है।
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