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________________ 42 :: तत्त्वार्थसार पारिणामिक भावों के भेद जीवत्वं चापि भव्यत्वमभव्यत्वं तथैव च। पारिणामिक-भावस्य, भेदत्रितयमिष्यते॥8॥ अर्थ-जीवत्व, भव्यत्व व अभव्यत्व-ये तीन गुण पारिणामिक स्वभाव के भेदरूप माने गये हैं। यहाँ पर 'पारिणामिक" शब्द का अर्थ है-कर्म के उदयादि की अपेक्षा न करता हुआ जो गुण आत्मा में मूल से रहनेवाला हो वह पारिणामिक है। ऊपर के तीनों गुणों को कर्म के उदयादि की कुछ भी आवश्यकता नहीं है, इसीलिए वे कर्म के रहते हुए भी रहते हैं और कर्मनाश होने पर सिद्धगति में भी रहते हैं। भव्यत्वगुण का सिद्धगति में आगे चलकर नाश हुआ बताएँगे, परन्तु उसका अर्थ इतना ही समझना चाहिए कि वह वहाँ निरुपयोगी हो जाता है, इसलिए असत के तल्य ही है। जीवत्व का अर्थ जीवन है. ज्ञानादिगणयक्त रहने को जीवन कहते हैं। एक शरीर छट जाने पर दूसरा शरीर जब तक मिलता नहीं तब तक संसारी जीव को 'मरा हुआ' कहते हैं। वहाँ ज्ञान होने की केवल क्षयोपशमरूप योग्यता रह जाती है, परन्तु उपयोगी ज्ञान वहाँ कुछ भी नहीं रहता। कार्य-शरीर का नाश होने से नवीन ज्ञान तो नहीं होता, परन्तु पूर्व के संस्कार भी शरीर के साथ ही छूट जाते हैं। यही कारण है कि उत्तर जन्म में पूर्वजन्म सम्बन्धी थोड़ा-सा स्मरण' भी किसी को नहीं होता। मन्दज्ञानियों की समझ में इतना कार्यकारण सम्बन्ध जीवन सिद्ध करनेवाला कदाचित् नहीं आ सकेगा, इसलिए ग्रन्थकारों ने यों कह दिया है कि श्वासादि चार प्राणों को धारण करे वह जीव है, अर्थात् व्यवहार से श्वासादि का नाम ही प्राण है, परन्तु यहाँ चैतन्य गुण सापेक्ष जीवत्व की मुख्यतता है जो सभी जीवों में समान रूप से पाया जाता है तथा कारण निरपेक्ष है अतः पारिणामिक है। भव्यत्व व अभव्यत्व-ये दोनों गुण ऐसे हैं कि सब जीवों में एक साथ नहीं रहते। जिस जीव में भव्यत्व रहता है उसमें अभव्यत्व नहीं रहता और जिस जीव में अभव्यत्व रहता हो उसमें भव्यत्व नहीं रहता। भव्यत्व का अर्थ मुक्ति प्राप्त होने की योग्यता। अभव्यत्व का अर्थ भव्यत्व से उलटा है, अतएव अभव्य जीव कभी मुक्त नहीं हो पाता है। 1. 'द्रव्यात्मलाभमात्रहेतुकः परिणामः । तत्र भवस्तत्प्रयोजनं यस्य वेति पारिणामिकः।'-सर्वा. सि., वृ. 252 2. 'निरुपभोगमन्त्यम्' इस सूत्र की व्याख्या में कार्मण शरीर को इन्द्रियज्ञान कराने के लिए असमर्थ बताया है। 3. क्योंकि, संस्कार भी उपयोगी ज्ञान है। 4. किसी-किसी को सुनते हैं कि स्मरण होता है। इसका कारण यह होना चाहिए कि जो जीव एक ही समय में दूसरा शरीर धार लेते हैं वे अनाहारक नहीं हो पाते। अतएव संस्कारशून्य भी एकदम नहीं हो पाते हैं। उन्हीं को सम्भव है कि पूर्वजन्म का स्मरण कुछ होता हो। परन्तु अनाहारक न होकर उत्तर शरीर धारण करनेवाले विरले ही होते हैं। 5. आयुर्द्रव्यापेक्षं जीवत्वं न पारिणामिकमिति चेन्न पुद्गलद्रव्यसम्बन्धे सत्यन्यद्रव्यसामर्थ्याभावात्।-रा.वा. 2/7, वा. 3 6. 'अभव्यजीवे बहिरात्मा व्यक्तिरूपेण, अन्तरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेणैव, न च भाविनैगमनयेनेति। शक्तिः पुनः शुद्धनयेनोभयत्र समाना। यदि पुनः शक्तिरूपेणाप्यभव्यजीवे केवलज्ञानं नास्ति तदा केवलज्ञानावरणं न घटेत।' अर्थात् भव्य-अभव्यों की केवलज्ञानादिरूप शक्ति समान ही है, केवल व्यक्त अवस्था के होने न होने से अन्तर पड़ता है। (द्र.सं.टी.)। सर्वार्थसिद्धि के कर्ता ने भी सम्यक्त्वोत्पत्ति आदि वर्णन के समय भव्यत्व को कारण बताया है। 'किंकृतोऽयं विशेषः? द्रव्यस्वभावकृतः। अत: पारिणामिकत्वमनयोः।' (रा.वा. 2/7, वा. 8) अर्थात् भव्यत्व-अभव्यत्व में परस्पर किस कारण से फर्क है ? इस प्रश्न का उत्तर राजवार्तिककार यों देते हैं कि यह भेद द्रव्यस्वभाव से ही है, अन्य कोई इसका कारण नहीं। इसी से तो इसे पारिणामिक कहा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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